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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565
created Yesterday, 12:45 by lucky shrivatri
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इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मोबाइन पर चिपके रहने की लत न केवल बच्चों बल्कि सभी आयु वर्ग के लोगों की मानसिक व शारीरिक सेहत पर विपरीत असर डाल रही है। राजस्थान के जालोर जिलें में बहू-बेटियो को कैमरायुक्त मोबाइल फोन के इस्तेमाल पर रोक का फरमान जारी करने वाले भी भले ही इस तर्क का सहारा ले रहे हैं, लेकिन आज के दौर में जब स्मार्टफोन की उपयोगिता अनिवार्य सी लगने लगी हो, वहां यह प्रतिबंध ने केवल सिर्फ महिलाओं को टारगेट करने वाला है बल्कि बेतुका भी है। चिंता की बात यह भी कि समाज से जुड़े कई सराहनीय फैसले लेने वाली पंचायतें लोगों के निजी जीवन पर असर डालने वाले ऐसे मनमाने फैसले थोपने लगी है।
हैरत की बात यह है कि सामाजिक पंचायत में महिलाओं पर यह प्रतिबंध सार्वजनिक समारोहों के साथ-साथ पड़ोसियों के घर ले जाने तक पर लगाया गया है। जबकि घर से बाहर स्वयं को सुरक्षित रखने के दौरान बेहतर तकनीक वाले फोन की उपयोगिता ज्यादा रहती है। इसमें दो राय नहीं कि देशभर में सामाजिक पंचायते दहेज के लेन-देन व नशे की प्रवृत्ति पर रोक के साथ-साथ बालिकाओं को पढ़ाने की अनिवार्यता जैसे सुधारात्मक फैसले भी लेती है। ऐसे फैसले निश्चित ही सामाजिक बदलाव की कहानी कहते है। लेकिन आधुनिक दौर में जब शिक्षा का प्रसार हुआ है और महिलाएं तरक्की के नित नए पायदान चढ़ रही है, ऐसा फरमान व संपर्क के माध्यमों को सीमित करने वाला तो ही, महिलाओं को आगे से भी रोकने वाला है। विचार करें, कोई भी ऐसे प्रतिबंधात्मक फरमानों को दबाव में महिलाएं मान भी लें तो क्या उनके लिए नए खतरे पैदा नहीं होने लगेंगे? मददगार बनाने के लिए बैकिंग सेवाओं के इस्तेमाल में और यहां तक कि पढ़ाई-लिखाई में स्मार्टफोन की उपयोगिता किसी से छिपी नहीं है। फरमान न केवल पुरानी सोच का परिचायक है बल्कि उस प्रवृत्ति की और भी संकेत करता है जिसमें लोग खुद मुसिफ बनकर दूसरों पर मनमाने फरमानों की पालना को लेकर दबाव डालते है जो कानूनी दृष्टि से भी अनुचित ही है। समय-समय पर देशभर में अदालतें भी शिक्षण संस्थाओं में स्मार्टफोन रखने पर लगाए गए प्रतिबंधों को अनुचित बाताती रही है।
हैरत की बात यह है कि सामाजिक पंचायत में महिलाओं पर यह प्रतिबंध सार्वजनिक समारोहों के साथ-साथ पड़ोसियों के घर ले जाने तक पर लगाया गया है। जबकि घर से बाहर स्वयं को सुरक्षित रखने के दौरान बेहतर तकनीक वाले फोन की उपयोगिता ज्यादा रहती है। इसमें दो राय नहीं कि देशभर में सामाजिक पंचायते दहेज के लेन-देन व नशे की प्रवृत्ति पर रोक के साथ-साथ बालिकाओं को पढ़ाने की अनिवार्यता जैसे सुधारात्मक फैसले भी लेती है। ऐसे फैसले निश्चित ही सामाजिक बदलाव की कहानी कहते है। लेकिन आधुनिक दौर में जब शिक्षा का प्रसार हुआ है और महिलाएं तरक्की के नित नए पायदान चढ़ रही है, ऐसा फरमान व संपर्क के माध्यमों को सीमित करने वाला तो ही, महिलाओं को आगे से भी रोकने वाला है। विचार करें, कोई भी ऐसे प्रतिबंधात्मक फरमानों को दबाव में महिलाएं मान भी लें तो क्या उनके लिए नए खतरे पैदा नहीं होने लगेंगे? मददगार बनाने के लिए बैकिंग सेवाओं के इस्तेमाल में और यहां तक कि पढ़ाई-लिखाई में स्मार्टफोन की उपयोगिता किसी से छिपी नहीं है। फरमान न केवल पुरानी सोच का परिचायक है बल्कि उस प्रवृत्ति की और भी संकेत करता है जिसमें लोग खुद मुसिफ बनकर दूसरों पर मनमाने फरमानों की पालना को लेकर दबाव डालते है जो कानूनी दृष्टि से भी अनुचित ही है। समय-समय पर देशभर में अदालतें भी शिक्षण संस्थाओं में स्मार्टफोन रखने पर लगाए गए प्रतिबंधों को अनुचित बाताती रही है।
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