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साँई कम्‍प्‍यूटर टायपिंग इंस्‍टीट्यूट गुलाबरा छिन्‍दवाड़ा (म0प्र0) सीपीसीटी न्‍यू बैच प्रारंभ संचालक- लकी श्रीवात्री मो. नं. 9098909565

created Today, 06:24 by lucky shrivatri


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जीवन का अर्थ है बंधन। बंधन का अर्थ है आशक्ति। इसी के कारण जीव को पुन: जन्‍म लेना पड़ता  है। मन में कुछ कामनांए अपूर्ण रह जाती हैं, जिनमें मन अटका रह जाता है। मन के इस अटकने का नाम ही आशक्ति है। यह इस बात का प्रमाण भी है कि जीवन का आधार केवल कामना है, और कुछ नहीं है। क्‍या कामना और आशक्ति एक ही अर्थ रखते है? कामना मन का बीज है। मन इंद्रियों का राजा है। हर इंद्रिय के साथ अलग-अलग कामना जुड़ी है। शरीर, बुद्धि और मन की भी अपनी कामनाएं होती है। हमारे जीवन का संचालन प्रकृति करती हैं। हमारे कर्मों का फल भी प्रकृति देती है। अत: फल के अनुरूप भी मन में कामनांए उठती है। इनको ईश्‍वरीय कामना भी कहा जाता है।फिर कुछ कामनाएं ऐसी भी होती हैं। जो मानव मात्र में प्‍याप्‍त होती हैं- इनको एषणा कहा जाता है। जैसे- पुत्रेषणा, कामेषणा अथवा यश एषणा। ये सब मिलकर जीवन में हमारे विभिन्‍न कर्मों  का हेतु बनती है। कामना का संबंध स्‍मृतियों एवं कल्‍पनाओं से भी जुड़ा रहता है। मूल में तो  ममकार ही होता है। मन चंचल है। इसमें राग है, द्वेष है, ईर्ष्‍या और लोभ है। मोह है। ये चंचलता के हेतु भी बनते है। मन के भावों को उद्वेलित भी करते रहते हैं। अशात मन में एक ही भाव पुन:-पुन: उठता रहता है। चाहे प्रिय के लिए हो अथवा अप्रिय के लिए। प्रिय और अप्रिय में विशेष भेद नहीं होता। अप्रिय में भी प्रिय होता है। आशक्ति भाव है। मन का भाव है, मन के इन भावों का आधार हाते हैं हमारे संस्‍कार। ये संस्‍कार ही भावों के साथ मंतव्‍य का रूप लिए होते है। मंतव्‍य ही इंटेशन है। मन का अहंकार ही विषयों  के साथ क्रिया-प्रतिक्रिया करता है। ममकार रूप में आशक्ति का हेतुु बन जाता है। 'मैं' और मेरा आशक्ति के मूल प्रेरक है। अहंकार के जुड़ जाने पर ममकार नकारात्‍मक रूप मे गतिमान हो जाता है। वैसे तो आशक्ति को भक्ति के समकक्ष माना गया है। अनुराग, अनुरक्‍त, जुड़ा हुआ, चिपका हुआ आदि रूप आशक्ति का लक्ष्‍य है। किंतु; प्राणों में चू‍ंकि सुर और असुर दोनों प्राण सम्मिलित रहते हैंं,अत: जो शक्तिमान होगा उधर के भाव अधिक प्रभावी हो जाएंगे। यही बात सत-रज-तम के प्रभाव पर भी लागू होती है। व्‍यसन की आशक्ति तमोगुण की प्रधानता से ही होती है। आसुरी भाव है। व्‍यसन मुक्‍त होना भी कठिन कार्य है। ममकार के कारण ही लोभ पैदा हाता है। परिग्रह की अवधारणा बलवती होती है। फिर लोगों से या वस्‍तुओं से मोह होने लगता है। यह मोह आशक्ति को जन्‍म देता है। इसमें सबसे बड़ा मोह व्‍यक्ति को शरीर की ही करता है। धन का मोह, संतान का मोह भी कुछ शक्तिशाली रूप हैं। आशक्ति के इसी प्रकार मोह का जाल बढ़ता जाता है। मोह के साथ-साथ असुरक्षा का भाव भी बढ़ता जाता है। प्रिय बंधु अथवा प्रिय व्‍यक्ति के छिन जाने का भय भी उतना ही बड़ा होता जाता है। आशक्ति और भय भी साथ-साथ बड़े होते है।       

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