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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565
created Yesterday, 04:53 by rajni shrivatri
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बचपन जीवन का सर्वाधिक आकर्षक समय होता है। बचपन में मधुर दिनों की याद का वर्णन न केवल साहित्य में किया गया है बल्कि फिल्मी गीतों में भी इसकी महत्ता को वर्णित किया गया है। बचपन एक तरह से जीवन के उन्मुक्त क्षण होते है। न खाने की चिन्ता न पीने की। हर चिन्ता से मुक्त होता है बचपन। किन्तु आज के भागमभाग वाले जीवन में क्या उसी तरह से निश्चित बचपन को देखा जा सकता है। अगर हम गहनता से देखते हैं तो पाते हैं कि आज बच्चों से उनका बचपन छिनता जा रहा है। गरीब बच्चों का बचपन जन्म के क्षण से छिन जाता है पर अब मध्यमवर्गीय परिवारों के बचपन भी धीरे-धीरे छिनता जा रहा है। जीवन की दौड़ में बच्चों में अल्प समय में ही ढेरो सफलताओं की आकांक्षा रखने वाले मां-बाप द्वारा उनके बचपन को मार दिया जा रहा है। आज आमतौर पर देखने में आता है कि मां-बाप छोटी उम्र में ही अपने बच्चों को जीनियस बनने का पाठ जबरदस्ती पढ़ाते हैं। जैसे मां-बाप की अनुपस्थिति में किसी मेहमान के घर आने पर व्यवहारिक औपचारिकतायें पूरी करने की हिदायत देना, उनके सामने सयानों जैसा व्यवहार करने को कहना आदि। कई बार तो देखने में आता है कि मां-बाप बच्चे द्वारा वैसा न कर सकने पर यह कहकर कि इसने हमारी नाक कटवा दी, बच्चे को मारते-पीटते तक है।
यह ठीक है कि बच्चों को किसी के घर आने पर स्वागत-सत्कार की सीख देना चाहिए, किन्तु बच्चे द्वारा वैसा न करने पर उसे मारना-पीटना कहां तक उचित है? मनोचिकित्सकों का मत है कि बच्चों को इस प्रकार उसके स्वभाव के विरीत छोटी उम्र से ही व्यवहारिक औपचारिकताओं में जबरदस्ती नहीं घसीटना चाहिए। ऐसा करना उसके बाल स्वभाव के लिए हानिकारक होता है। बाल्यकाल में बच्चे में सामाजिक विचारों का अभाव होता है, वह स्वकेन्द्रित होता है। उसे सामाजिक विचार दिये जायें, यह गलत नहीं है, गलत तो इन विचारों और व्यवहारों को उसकी इच्छा के विपरीत थोपना है। बच्चे को कभी भी जबरदस्ती वयस्क बनाने का प्रयास करने के बजाय उसे अपने बचपन को बचपन की तरह ही जीने देना चाहिए। अकसर माता-पिता या अन्य अभिभावक बच्चे के अल्पायु में ही अधिक ज्ञान अर्जित करने की अपेक्षा रखते है। वे इसके लिए बच्चे को उसकी क्षमता के विपरीत बहुत कुछ सिखाने का प्रयत्न करते है।
यह ठीक है कि बच्चों को किसी के घर आने पर स्वागत-सत्कार की सीख देना चाहिए, किन्तु बच्चे द्वारा वैसा न करने पर उसे मारना-पीटना कहां तक उचित है? मनोचिकित्सकों का मत है कि बच्चों को इस प्रकार उसके स्वभाव के विरीत छोटी उम्र से ही व्यवहारिक औपचारिकताओं में जबरदस्ती नहीं घसीटना चाहिए। ऐसा करना उसके बाल स्वभाव के लिए हानिकारक होता है। बाल्यकाल में बच्चे में सामाजिक विचारों का अभाव होता है, वह स्वकेन्द्रित होता है। उसे सामाजिक विचार दिये जायें, यह गलत नहीं है, गलत तो इन विचारों और व्यवहारों को उसकी इच्छा के विपरीत थोपना है। बच्चे को कभी भी जबरदस्ती वयस्क बनाने का प्रयास करने के बजाय उसे अपने बचपन को बचपन की तरह ही जीने देना चाहिए। अकसर माता-पिता या अन्य अभिभावक बच्चे के अल्पायु में ही अधिक ज्ञान अर्जित करने की अपेक्षा रखते है। वे इसके लिए बच्चे को उसकी क्षमता के विपरीत बहुत कुछ सिखाने का प्रयत्न करते है।
