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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565
created Mar 12th, 04:40 by lovelesh shrivatri
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चैन की नींद सोना मुहावरा यों ही नहीं बना होगा। जाहिर है चैन की नींद ऐसी नींद है जो बिना किसी तरह की चिंता, डर व मानसिक बोझ के बाती हो। ये तमाम बजहें होगी तो नींद तो वैसे ही गायब हो जाया करती है। वैज्ञानिक व चिकित्सकीय शोध में यह प्रमाणित हो चुका हैं कि नींद पूरी नहीं होने से न केवल सेहत पर विपरीत असर पड़ता है बल्कि कार्यक्षमता में भी कमी आती हैै। पहले यह माना जाता था कि नींद की कमी और दिमागी चिंताओं से ज्यादातर विकसित देशों के लोग ही पीडि़त होते है। लेकिन भारतीयों के संदर्भ में लोकल सर्किल्स का ताजा सर्वेक्षण कहता है कि 59 फीसदी लोग छह घंटे की नींद भी नहीं ले पा रहे। इतना ही नहीं इनमें 38 फीसदी भारतीय सप्ताहांत या छुट्टियों में भी इस नींद की भरपाई नहीं कर पाते।
नींद की कमी थकान बढ़ाने वाली तो होती ही है, आलस्य, कमजोरी, चिंता व तनाव जैसी समस्याएं भी जल्द ही घर करने लगती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की पूर्व मुख्य वैज्ञानिक सौम्मा स्वामीनाथन ने भी कहा है कि हमें हमारे शरीर की सुननी चाहिए क्योंकि यह खुद बता देता हैं कि उसे कब आराम करना चाहिए। लेकिन भागमभाग की जिंदगी में कार्यस्थल पर काम का दबाव, शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई का दबाव या फिर घर-गृहस्थी की चिंता के मारे भी नींद कोसों दूर होने लगी है। जबकि बेहतर शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए रोजाना सात घंटे की नींद जरूर होती है। क्योंकि तामम अध्ययन यह भी साफ कर चुके हैं कि नींद पूरी नहीं पर हृदय रोग, मोटापा व टाइप टू-मधुमेह समेत जीवशैली जनित दूसरे रोग होने की आशंका ज्यादा रहती है। दूसरे कारणों के साथ सोशल मीडिया को भी लोगों के नींद के समय में कटौती की बड़ी वजह माना जा रहा है। जीवनशैली में आ रहे बदलाव और तमाम चिकित्सा मानक भी इस और संकेत कर रहे हैं कि जैसे-जैसे सोशल मीडिया का उपयोग बढ़ रहा है, खासतौर से युवा पीढ़ी की नींद की समयावधि और गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। मोबाइल फोन का बिस्तर पर जाने के बाद भी इस्तेमाल पर्याप्त नींद से मिलने वाली स्वाभाविक स्फूर्ति से भी वंचित कर रहा है। नींद की कमी से न केवल हमारे देश की कुल उत्पादता पर असर पड़ रहा है बल्कि यह आए दिन होने वाल सड़क दुर्घटनाओं की भी बड़ी वजह बनती जा रही है।
नींद की कमी थकान बढ़ाने वाली तो होती ही है, आलस्य, कमजोरी, चिंता व तनाव जैसी समस्याएं भी जल्द ही घर करने लगती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की पूर्व मुख्य वैज्ञानिक सौम्मा स्वामीनाथन ने भी कहा है कि हमें हमारे शरीर की सुननी चाहिए क्योंकि यह खुद बता देता हैं कि उसे कब आराम करना चाहिए। लेकिन भागमभाग की जिंदगी में कार्यस्थल पर काम का दबाव, शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई का दबाव या फिर घर-गृहस्थी की चिंता के मारे भी नींद कोसों दूर होने लगी है। जबकि बेहतर शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए रोजाना सात घंटे की नींद जरूर होती है। क्योंकि तामम अध्ययन यह भी साफ कर चुके हैं कि नींद पूरी नहीं पर हृदय रोग, मोटापा व टाइप टू-मधुमेह समेत जीवशैली जनित दूसरे रोग होने की आशंका ज्यादा रहती है। दूसरे कारणों के साथ सोशल मीडिया को भी लोगों के नींद के समय में कटौती की बड़ी वजह माना जा रहा है। जीवनशैली में आ रहे बदलाव और तमाम चिकित्सा मानक भी इस और संकेत कर रहे हैं कि जैसे-जैसे सोशल मीडिया का उपयोग बढ़ रहा है, खासतौर से युवा पीढ़ी की नींद की समयावधि और गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। मोबाइल फोन का बिस्तर पर जाने के बाद भी इस्तेमाल पर्याप्त नींद से मिलने वाली स्वाभाविक स्फूर्ति से भी वंचित कर रहा है। नींद की कमी से न केवल हमारे देश की कुल उत्पादता पर असर पड़ रहा है बल्कि यह आए दिन होने वाल सड़क दुर्घटनाओं की भी बड़ी वजह बनती जा रही है।
