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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 (( जूनियर ज्यूडिशियल असिस्टेंट न्यू बेच प्रारंभ ))संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565
created Jan 7th, 04:30 by lucky shrivatri
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जोधपुर की एक चर्चित दूकान पर लस्सी का ऑर्डर देकर हम सब दोस्त यार आराम से बैठकर एक दूसरे की खिंचाई और इंसी-मजाक में लगे ही थे कि लगभग 75-80 वर्ष की बुजुर्ग महिला पैसे मांगते हुए मेरे सामने अपने हाथ फैलाकर खड़ी हो गई। उनकी कमर झुकी हुई थी, चेहरे की झुर्रियों में भूख तैर रही थी। नेत्र भीतर को धंसे किन्तु सजल थे। उनके देखकर मन में न जाने क्या आया कि मैंने अपनी जेब से सिक्के निकालने के लिए डाला हुआ हाथ वापस खींचते हुए उनसे पूछ लिया। दादी जी लस्सी पियेगे। मेरी इस बात पर दादी कम अचंभित हुई और मेरे मित्र अधिक। क्योंकि अगर मैं उनको पैसे देता तो बस 5 या 10 रूपए ही देता लेकिन लस्सी तो 30 रूपए की एक है। इसलिए लस्सी पिलाने से मेरे गरीब हो जाने की और उस बूढी दादी के द्वारा मुझे ठग कर अमीर हो जाने की संभावना बहुत कम बढ़ गई थी।
दादी ने सकुचाते हुए हामी भरी और अपने पास जो मांग कर जमा किए हुए 6-7 रूपए थे, वो अपने कांपते हाथों से मेरी ओर बढ़ाए। मुझे कुछ समझ नहीं आया तो तो मैंने उनसे पूछा- ये किस लिए? ये किस लिए इनको मिलाकर मेरी लस्सी के पैसे चुका देना बाबूची। भावुक तो मैं उनको देखकर ही हो गया था रही बची कसर उनकी इस बात ने पूरी कर दी। एकाएक मेरी आंखे छलछला आई और भरभराए हुए गले से मैंने दुकान वाले से एक लस्सी बढ़ाने को कहा उसने अपने पैसे वापस मुट्ठी में बंद कर लिए और पास ही जमीन पर बैठ गई। अब मुझे अपनी लाचारी का अनुभव हुआ क्योंकि मैं वहां पर मौजूद दुकानदार अपने दोस्तों और कई अन्य ग्राहकों की वजह से उनको कुर्सी पर बैठने के लिए नहीं कह सका। डर था कि कहीं कोई टोक ना दे कहीं किसी को एक भीख मांगने वाली बूढ़ी महिला के उनके बराबर में बिठाए जाने पर आपत्ति न हो जाए लेकिन वो कुर्सी जिस पर मैं बैठा था, मुझे काट रही थी। लस्सी कुल्लड़ों में भरकर हम सब मित्रों और बूढ़ी दादी के हाथों में आते ही मैं अपना कुल्लड़ पकड़कर दादी के पास ही जमीन पर बैठ गया क्योंकि ऐसा करने के लिए तो मैं स्वतंत्र था इससे किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी। हां मेरे दोस्तों ने मुझे एक पल को घूरा लेकिन वो कुछ कहते उससे पहले ही दुकान के मालिक ने आगे बढ़कर दादी को उठाकर कुर्सी पर बैठा दिया और मेरी ओर मुस्कुराते हुए हाथ जोड़कर कहा ऊपर बैठ जाइए साहब मेरे यहां ग्राहक तो बहुत आते हैं किंतु इंसान कभी-कभार ही आता है।
अब सबके हाथों में लस्सी के कुल्लड और होठों पर सहज मुस्कराहट थी, बस एक वो दादी ही थी जिनकी आंखो में तृप्ति के आंसू होठों पर मलाई के कुछ अंश और दिल मै सैकड़ों दुआएं थी। न जाने क्यों जब कभी हमें 10-20 रूपए किसी भूखे गरीब को देने या उस पर खर्च करने होते हैं तो वो हमें बहुत ज्यादा लगते है। लेकिन सोचिए कि क्या वो चंद रूपए किसी के मन को तृप्त करने से अधिक कीमती है। जब कभी अवसर मिले ऐसे दयापूर्ण और करूणामय काम करते रहे भले ही कोई आपका साथ दे या ना दे।
दादी ने सकुचाते हुए हामी भरी और अपने पास जो मांग कर जमा किए हुए 6-7 रूपए थे, वो अपने कांपते हाथों से मेरी ओर बढ़ाए। मुझे कुछ समझ नहीं आया तो तो मैंने उनसे पूछा- ये किस लिए? ये किस लिए इनको मिलाकर मेरी लस्सी के पैसे चुका देना बाबूची। भावुक तो मैं उनको देखकर ही हो गया था रही बची कसर उनकी इस बात ने पूरी कर दी। एकाएक मेरी आंखे छलछला आई और भरभराए हुए गले से मैंने दुकान वाले से एक लस्सी बढ़ाने को कहा उसने अपने पैसे वापस मुट्ठी में बंद कर लिए और पास ही जमीन पर बैठ गई। अब मुझे अपनी लाचारी का अनुभव हुआ क्योंकि मैं वहां पर मौजूद दुकानदार अपने दोस्तों और कई अन्य ग्राहकों की वजह से उनको कुर्सी पर बैठने के लिए नहीं कह सका। डर था कि कहीं कोई टोक ना दे कहीं किसी को एक भीख मांगने वाली बूढ़ी महिला के उनके बराबर में बिठाए जाने पर आपत्ति न हो जाए लेकिन वो कुर्सी जिस पर मैं बैठा था, मुझे काट रही थी। लस्सी कुल्लड़ों में भरकर हम सब मित्रों और बूढ़ी दादी के हाथों में आते ही मैं अपना कुल्लड़ पकड़कर दादी के पास ही जमीन पर बैठ गया क्योंकि ऐसा करने के लिए तो मैं स्वतंत्र था इससे किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी। हां मेरे दोस्तों ने मुझे एक पल को घूरा लेकिन वो कुछ कहते उससे पहले ही दुकान के मालिक ने आगे बढ़कर दादी को उठाकर कुर्सी पर बैठा दिया और मेरी ओर मुस्कुराते हुए हाथ जोड़कर कहा ऊपर बैठ जाइए साहब मेरे यहां ग्राहक तो बहुत आते हैं किंतु इंसान कभी-कभार ही आता है।
अब सबके हाथों में लस्सी के कुल्लड और होठों पर सहज मुस्कराहट थी, बस एक वो दादी ही थी जिनकी आंखो में तृप्ति के आंसू होठों पर मलाई के कुछ अंश और दिल मै सैकड़ों दुआएं थी। न जाने क्यों जब कभी हमें 10-20 रूपए किसी भूखे गरीब को देने या उस पर खर्च करने होते हैं तो वो हमें बहुत ज्यादा लगते है। लेकिन सोचिए कि क्या वो चंद रूपए किसी के मन को तृप्त करने से अधिक कीमती है। जब कभी अवसर मिले ऐसे दयापूर्ण और करूणामय काम करते रहे भले ही कोई आपका साथ दे या ना दे।
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