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साँई कम्‍प्‍यूटर टायपिंग इंस्‍टीट्यूट गुलाबरा छिन्‍दवाड़ा म0प्र0 संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565

created Jan 6th, 07:27 by lovelesh shrivatri


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भारतीय परंपराओं में हर कदम पर प्राणों की प्रतिष्‍ठा है। इसकी चर्चा तो सविंधान में है। और ही लोकतंत्र के अंगों में। तब हमारे नए कानून अथवा कानून में संशोधन कैसे सांस्‍कृतिक परंपराओं के अनुकूल होंगे? स्‍वच्‍छंद विदेशी जीवन शैली के अनुरूप बनने वाले कानून को तो अस्‍सी प्रतिशत से अधिक भारतीय समझ भी नहीं सकते। और ही ऐसे कानून हमारी परंपराओं का सम्‍मान ही करते हैं। इस देश में भाषाएं अनेक हैं, किंतु संस्‍कृति एक रही हैं। जिसको लोकतंत्र के पायों ने समझने का प्रयास तक नहीं किया। कानून बना दिए, पर इन्‍हें लागू करने के नाम पर पुलिस के ड़ंड़े पड़ने लगे। क्‍या स्‍वतंत्र भारत में किसी जाति-धर्म वाले को स्‍वतंत्र जीने का अधिकर नहीं है?  क्‍या आज भी भारतीय नागरिक इन तथाकथित अंग्रेजीदा के डंडे खाकर उनकी मर्जी के अनुसार ही जीवन बिताएगा? क्‍या हमारे नीति निर्धारक स्‍वयं को भारतीय संस्‍कृति में रंग पाएंगे? उदाहरण के लिए समलौंगिकता को स्‍वीकृति की बातें क्‍या मानवता का अपमान नहीं हैं? क्‍या लिव इन रिलेशन भारतीय लोकमानस की आवश्‍यकता हैं? इसके मूल में जो शोर करने वाले हैं वे कितने हैं, और पीछे कारण क्‍या हैं? देखा जाए तो पिछले वर्षों में अधिकांश कानूनों की चर्चा में भारतीय दर्शन की गरिमा मर्यादा टूटने की ही आवाजें आई हैं। शिक्षा की नीति और अनीति का कोई अर्थ नहीं। जब तक मानवीय मूल्‍य, सुसंस्‍कृत पीढ़ी की अनिवार्यता को दृढ़ता से लागू नहीं किया जाएगा, हम पेट भरने के लिए अंग्रेज ही पैदा करते रहेंगे। वे इस देश को लूटते रहेगें। नारी शक्ति का अपमान सरेराह होता रहेगा। आज तो अधिकारियों को न्‍यायालय की अवमानना का डर ही नहीं हैं। दूसरी ओर, विधायिका में अपराधियों को बोलबाला और माफिया का तंत्र पर हावी होना क्‍या संदेश देता हैं- स्‍पष्‍ट ही हैं। धिक्‍कार है उनको, जो आजादी के नाम पर देश को पराया कर रहे हैं।वोटों की राजनीति देश के सम्‍मान के आगे रावन लगती हैं। राजनेता देश को बेच रहे हैं। और जातिवाद-वंशवाद पर सब मौन हैं। देशवासियों को सब कुछ मंजूर है पर देश की इज्‍जत से खिलवाड़ सच में मंजूर नहीं। यह बात सही है कि सबकी चिंता त्‍वरित न्‍याय की होनी चाहिए। इसके लिए जरूरी हैं, कि जनहित याचिकाओं का निपटरा भी तय समयावधि में हों। टोल हटाने का मुद्दा यदि तारीखों में अटक गया तो करोड़ों रुपए डकार जाएगी सरकार। यह तो उदाहरण मात्र है। जयपुर के रामगढ़  बांध पर अतिक्रमण करने वालों को क्‍यों नहीं आजीवन कारावास की सजा हो। जेल की सजा काट चुके व्‍यक्ति  क्‍यों सरकारी नौकरी में आएं, क्‍यों चुनाव लड़ें? हमारी संस्‍कृति पर प्रहार करते ऐसे मसलों पर कोई नीति निर्धारित करने के पहले सरकार को भारतीय संस्‍कृति का अध्‍ययन करना होगा। अधिकारियों में भी अग्रेंजी संस्‍कृति की जड़ें गहरी होती दिख रही हैं। उन्‍हें तो जाति और वर्ण तक का भेद शायद ही पता हो। जनप्रतिनिधियों को तो कम से कम दिशा में गंभीरता से सोचना चाहिए। हमें भारत को उठाना है पेट भर कर मर नहीं जाना हैं। भूखे रहकर भी आस्‍था बनाए रखना आनंद हैं। पेट भर भोग करना नरक से कहां कम हैं।     

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