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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 (( जूनियर ज्यूडिशियल असिस्टेंट न्यू बेच प्रारंभ ))संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565
created Dec 6th, 04:13 by Jyotishrivatri
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सुप्रीम कोर्ट एक ऐसी दलित छात्र के बचाव में आगे आया है जो समय पर फीस नहीं भरने के कारण आइआइटी बॉम्बे में दाखिले से वंचित रह गया था। क्रेडिट कार्ड के काम नहीं करने के कारण फीस जमा नहीं करा पाए इस छात्र की याचिका बॉम्बे हाईकोर्ट ने खारिज कर दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने उसे आगामी 48 घंटे में दाखिला देने की बात कहते हुए यह भी टिप्पणी की है कि कभी-कभी अदालतों को कानून से ऊपर उठकर भी फैसला देना चाहिए। कोर्ट का मानना था कि यह प्रकरण एक ऐसे प्रतिभाशाली छात्र से जुड़ा हुआ था जिसने कड़ी मेहनत के बाद आइआइटी की प्रवेश परीक्षा पास कर बॉम्बे आइआइटी में दाखिले की पात्रता हासिल की थी।
सुप्रीम कोर्ट ने छात्र की समस्या को मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए समझने की कोशिश की है। इस छात्र ने यह भी गुहार की थी कि आइआइटी बॉम्बे के बजाय वह किसी अन्य आइआइटी में दाखिले को तैयार है। तकनीक के इस दौर में कई बार सिस्टम की खामी ही ऐसे संकट का कारण बनती रहती है। इस मामले में भी आइआइटी बॉम्बे ने छात्र की ओर से जमा कराने के लिए पेश किए गए तमाम दूसरे विकल्प सिरे से नकार दिए तो उसे हाईकोर्ट की शरण लेनी पड़ी। हाईकोर्ट ने याचिका खारिज कर दी तब जाकर उसने शीर्ष अदालत में गुहार लगाई। मामूली कारणों को आधार बनाते हुए दाखिले से इनकार कर छात्रों का भविष्य अधर में लटकाने में मामलों में हमारी शिक्षण संस्थाओं का संवेदनहीन रवैया सामने आता रहा है। कोरोना संक्रमण के दौर में हमने यह भी देखा है कि तमाम तरह की शिक्षण संस्थाएं पढ़ाई न होने पर भी छात्रों पर फीस जमा कराने का दबाव बनाती रहीं। ऐसे कई होनहार होंगे जिनकी पढ़ाई ऐसे संवेदनहीन रवैये के चलते बाधित हुई होगी। संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा से जुड़े इस प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने इस दलित छात्र को राहत दिलाकर अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल किया है। सुप्रीम कोर्ट जब कहता है कि अदालतों को कभी-कभी कानून से ऊपर उठकर भी फैसला देना चाहिए तो इन्हीं संवैधानिक अधिकारों की रक्षा का सवाल समाने आता है।
शीर्ष अदालत के ऐसे लीक से हटकर फैसले राहत देने वाले जरूर लगते हैं, लेकिन समूचे सिस्टम पर भी सवाल खड़े करते हैं। आखिर क्यों मामूली बातों के लिए अदालतों तक फरियाद करनी पड़ती है।
सुप्रीम कोर्ट ने छात्र की समस्या को मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए समझने की कोशिश की है। इस छात्र ने यह भी गुहार की थी कि आइआइटी बॉम्बे के बजाय वह किसी अन्य आइआइटी में दाखिले को तैयार है। तकनीक के इस दौर में कई बार सिस्टम की खामी ही ऐसे संकट का कारण बनती रहती है। इस मामले में भी आइआइटी बॉम्बे ने छात्र की ओर से जमा कराने के लिए पेश किए गए तमाम दूसरे विकल्प सिरे से नकार दिए तो उसे हाईकोर्ट की शरण लेनी पड़ी। हाईकोर्ट ने याचिका खारिज कर दी तब जाकर उसने शीर्ष अदालत में गुहार लगाई। मामूली कारणों को आधार बनाते हुए दाखिले से इनकार कर छात्रों का भविष्य अधर में लटकाने में मामलों में हमारी शिक्षण संस्थाओं का संवेदनहीन रवैया सामने आता रहा है। कोरोना संक्रमण के दौर में हमने यह भी देखा है कि तमाम तरह की शिक्षण संस्थाएं पढ़ाई न होने पर भी छात्रों पर फीस जमा कराने का दबाव बनाती रहीं। ऐसे कई होनहार होंगे जिनकी पढ़ाई ऐसे संवेदनहीन रवैये के चलते बाधित हुई होगी। संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा से जुड़े इस प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने इस दलित छात्र को राहत दिलाकर अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल किया है। सुप्रीम कोर्ट जब कहता है कि अदालतों को कभी-कभी कानून से ऊपर उठकर भी फैसला देना चाहिए तो इन्हीं संवैधानिक अधिकारों की रक्षा का सवाल समाने आता है।
शीर्ष अदालत के ऐसे लीक से हटकर फैसले राहत देने वाले जरूर लगते हैं, लेकिन समूचे सिस्टम पर भी सवाल खड़े करते हैं। आखिर क्यों मामूली बातों के लिए अदालतों तक फरियाद करनी पड़ती है।
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