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MY NOTES 247 जूनियर ज्‍यूडिशियल असिस्‍टेंट हिंदी मोक टाइपिंग टेस्‍ट

created Dec 5th, 16:07 by 12345shiv


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अपीलकर्ताओं के अनुसार, धारा के अनुसार प्रस्‍तुत रियायत आयातक को यह प्रश्‍न करने के अधिकार से वंचित कर सकती है कि क्‍या ऐसी कोई सामग्री थी जो उचित अधिकारी के लिए विश्‍वास करने का कारण रखने और लेनदेन के मूलय पर संदेह करने के लिए पर्याप्‍त आधार बनाती लेकिन यह आयातक के अंतिम मूल्‍यांकन पर ही प्रश्‍न उठाने के अधिकार को नहीं छीनती। तो यह अधिकार निराश या समाप्‍त नहीं होगा, इसलिए आवश्‍यक है कि यदि कोई अभियुक्‍त धारा 167 की उपधारा के परन्‍तुक के आवेदन द्वारा जमानत पर रिहा होने का हकदार है, मजिस्‍ट्रेट के समक्ष आवेदन करता है किन्‍तु मजिस्‍ट्रेट गलती से उसे अस्‍वीकार कर देता है और आवेदन को खारिज कर देता है तब अभियुक्‍त उच्‍च फोरम में जाता है और जब मामला विचारार्थ उच्‍च फोरम के समक्ष लंबित रहता है तो आरोप-पत्र दाखिल कर दिया जाता है, इससे अभियुक्‍त का तथाकथित अजेय अधिकार समाप्‍त नहीं होगा और दूसरी ओर, अभियुक्‍त को जमानत पर रिहा करना होगा। ऐसे अभियुक्‍त को, जो इस प्रकार अपने अपरिवर्तनीय अधिकार के प्रवर्तन में जमानत पर रिहा होने का हकदार है, तथापि धारा 209 के अनुसार आरोप-पत्र दाखिल किए जाने पर मजिस्‍ट्रेट के समक्ष पेश किया जाना होगा और मजिस्‍ट्रेट को उसे हिरासत में भेजने के मामले में जमानत से संबंधित संहिता के प्रावधानों के अधीन और मोहम्‍मद इकबाल बनाम महाराष्‍ट्र राज्‍य सुप्रा के मामले में इस न्‍यायालय द्वारा पहले से निर्धारित कानून के अनुसार दी गई जमानत को रद्द करने के प्रावधानों के अधीन निपटना होगा। जांच पूरी करने के लिए अधिकतम समय अवधि पर जोर देते हुए धारा 167 (2) वर्ष 1978 में पेश की गई थी। इस प्रावधान के पीछे एक प्रशंसनीय उद्देश्‍य है, जो एक त्‍वरित जांच और निष्‍पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करना है, और एक तर्कसंगत प्रक्रिया निर्धारित करना है जो समाज के निर्धन वर्गों के हितों की रक्षा करती है।
 

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