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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 (( जूनियर ज्यूडिशियल असिस्टेंट न्यू बेच प्रारंभ ))संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565
created Nov 29th, 04:02 by lovelesh shrivatri
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यदि आपराधिक कार्यवाही अपास्त किए जाने हेतु की गई याचिका खारिज कर दी गई हो, तो उन्हीं आधारों पर दूसरी याचिका सुनी जाने योग्य नहीं होगी, बशर्तें है कि परिस्थितियों में किसी प्रकार का परिवर्तन न हुआ हो। यह जानने के लिए कि कोई प्रथम दृष्टया आपराधिक मामला बनता है या नहीं, न्यायालय स्वयं को केवल प्रथम सूचना रिपोर्ट तथा आरोप पत्र तक ही सीमित नहीं रखेगा बल्कि इस हेतु वह डायरी तथा अन्य सुसंगत सामग्री पर भी विचार कर सकता है। तथापि न्यायालय बेबुनियाद आधारों पर किसी आपराधिक कार्यवाही को अपास्त नहीं करेगा। वाद में अभियुक्ता के विरुद्ध लिखित अधिनियम की धारा 138 के अधीन अपराध करने का आरोप था। प्रथम दृष्टया बयानों से अपराध कारित होना साबित हुआ था। परंतु अपीलार्थी द्वारा उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण आवेदन प्रस्तुत किया जाने पर उच्च न्यायालय ने आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया जिसे उच्चतम न्यायालय ने अपील में इस आधार पर अपास्त कर दिया कि इससे अपराध से संबंधित रिकॉर्ड के विवर्तन का प्रयास किया था जो न्यायोचित नहीं था।
उक्त वाद में अभियुक्ता वरलक्ष्मी के विरुद्ध परिवाद के आधार पर मजिस्ट्रेट द्वारा लिखित अधिनियम की धारा 138 के अंतर्गत अपराध का संज्ञान किया जा चुका था। अभियुक्ता ने उक्त अपराध के संज्ञान को उच्च न्यायालय में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन पुनरीक्षण आवेदन द्वारा चुनौती दी। उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की। उच्चतम न्यायायल ने उच्च न्यायालय के आदेश को अवैध ठहराते हुए अभिनिर्धारित किया कि न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन उसे प्राप्त पुनरीक्षण की शक्ति का उल्लंघन किया था। उच्च न्यायालय द्वारा मजिस्ट्रेट की संज्ञान करने संज्ञान संबंधी कार्यवाही को उसी दशा में रद्द किया जा सकता था जब न्यायालय को यह संतुष्टि हो जाती कि लिए गए बयानों के आधार पर अभियुक्ता के विरुद्ध सरकारी तौर पर कोई आपराधिक मामला नहीं बनता। अत: उच्च न्यायालय के आदेश को अपास्त करते हुए उच्चतम न्यायालय ने मजिस्ट्रेट को निर्देशित किया कि वह कार्यवाही चालू रखते हुए उसका विचारण शीघ्रता से करे।
उक्त वाद में अभियुक्ता वरलक्ष्मी के विरुद्ध परिवाद के आधार पर मजिस्ट्रेट द्वारा लिखित अधिनियम की धारा 138 के अंतर्गत अपराध का संज्ञान किया जा चुका था। अभियुक्ता ने उक्त अपराध के संज्ञान को उच्च न्यायालय में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन पुनरीक्षण आवेदन द्वारा चुनौती दी। उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की। उच्चतम न्यायायल ने उच्च न्यायालय के आदेश को अवैध ठहराते हुए अभिनिर्धारित किया कि न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन उसे प्राप्त पुनरीक्षण की शक्ति का उल्लंघन किया था। उच्च न्यायालय द्वारा मजिस्ट्रेट की संज्ञान करने संज्ञान संबंधी कार्यवाही को उसी दशा में रद्द किया जा सकता था जब न्यायालय को यह संतुष्टि हो जाती कि लिए गए बयानों के आधार पर अभियुक्ता के विरुद्ध सरकारी तौर पर कोई आपराधिक मामला नहीं बनता। अत: उच्च न्यायालय के आदेश को अपास्त करते हुए उच्चतम न्यायालय ने मजिस्ट्रेट को निर्देशित किया कि वह कार्यवाही चालू रखते हुए उसका विचारण शीघ्रता से करे।
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