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अभ्यासअभ्यासअभ्यासअभ्यास 4

created Oct 27th, 13:33 by _SUBH_


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वह आसमान में कभी-कभी बादलों की परत की तरह गहरा जाती। कभी जिस्म को छूने लगती और कभी पूरी की पूरी वादी में कोयल की कुहुक की तरह सुनाई देती। कभी वह पपीहे की पुकार बन मन के दरवाजे पर दस्तक देती। कभी तारों भरी रात में एकाकीपन का अहसास कराती और कभी मिट्टी के दीये की लौ बनकर घर की देहरी पर छा जाती। कभी वह नन्हीं सी गुड़िया की किलकारी बनती तो कभी खेतों की जगमगाती हरियाली का अनुभव कराती कभी-कभी वह काले घने आसमान में बिजली की कौंध की तरह चमक जाती, लेकिन अक्सर यह यमुना की धारा की नीली रंगत बन जाती। वह किसी सुनसान पहाड़ी की वादी में प्रेमिका की उन्मत्त पुकार बनती। कभी-कभी वह वृंदावन की गलियों में धेनु के गले में बजती घंटी बनकर सुनाई देती। कभी वह ललिता सखी की व्याकुलता बनती, कभी महारास के क्षणों में गोपियों के कृष्ण-मिलन की आस बन जाती। कभी-कभी वह राधा के वियोग से जनित आँसू और कभी वह एक अनंत प्रतीक्षा की पहचान बन जाती। जिसने भी सुना है बाँसुरी की उस स्वर लहरी को, वह एक बार नहीं, कितनी-कितनी बार उस स्वर लहरी में अपने मन की सारी कोमल, समस्त उदात्त भावों को अनुभव किया है। वह मधुर स्वर-लहरी पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की बाँसुरी की है।
हरि प्रसाद चौरसिया की बाँसुरी की धुन को सुनकर लगता है, भगवान श्री कृष्ण वृंदावन की कुंज गलियों में गोपियों के साथ अपने निधि वन में वापस गए हैं। हरि जी की बाँसुरी को सुनकर लगता है कि राधा की प्रतीक्षा समाप्त हो गई है। उस बाँसुरी को सुनकर जाने ऐसा क्यों लगता है कि बजते-बजते वह बाँसुरी, सहसा उदास हो गई है। वह उदासी, कृष्ण के चले जाने के बाद की, शायद राधा जी की उदासी है। बाँसुरी एक ऐसा वाद्य है, जिसमें वादक बाँसुरी को नहीं, बल्कि अपने आपको साधता है। वादक स्वर से तनिक भी भटका नहीं कि बाँसुरी का स्वर भी भटक जाता है। बाँसुरी का स्वर वस्तुतः बाँसुरी वादक की अंतर-आत्मा से निकले स्वर की अनंत ईश्वरीय प्रेम से पहचान कराता है।
 

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