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अभ्यास 3333333333333
created Oct 27th, 13:32 by _SUBH_
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स्वराज अंग्रेजी पढ़े भारतवासियों का है और केवल उनके लिए है तो संपर्क भाषा अवश्य अंग्रेजी होगी, परंतु यदि स्वराज करोड़ों भूखे लोगों, करोड़ों निरक्षर स्त्रियों, सताए हुए अछूतों के लिए है तो संपर्क भाषा केवल हिंदी ही हो सकती है। सन् 1931 में अभिव्यक्त महात्मा गांधी के उपर्युक्त विचार पराधीन भारत में जितने प्रासंगिक थे, आज आजादी के सत्तर वर्षों बाद उससे कहीं ज्यादा मूल्यवान हैं। हिंदी को आज अपेक्षाकृत अधिक संबल की आवश्यकता इसलिए भी है कि पहले वह औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध गतिशील राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम का एक सशक्त अस्त्र थी और उसके गांधी जी जैसी विराट विभूति का संरक्षण प्राप्त था। इन वजहों से ही उस दौर में हिंदी राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोने वाला धागा थी और उसका सम्मान, दायरा अनवरत विस्तार पा रहा था, जबकि आजादी के बाद से लेकर आज तक का समय हिंदी के गौरव के ह्रास का समय रहा है।
इस प्रसंग में विडंबना यह रही कि आजादी के बाद हिंदी प्रेम को लेकर जो सांगठनिक प्रयत्न हुए हैं और जिनके फलस्वरूप जिस अवधारणा को मजबूती प्राप्त हुई है, उसमें हाशिए पर रही जनता के प्रति सरोकार की तुलना में भाषायी अधिनायकवाद, आक्रांता भाव के तत्व अधिक रहे हैं। यहां हिंदी को जन सामान्य की भाषा के बजाय उसको अंग्रेजी के स्थानापन्न के रूप में देखने की ख्वाहिश निहित रहती है। निश्चय ही यह सीधी-सादी मानवीय आकांक्षा नहीं है, बल्कि जाने-अनजाने इसमें एक औपनिवेशिक अवशेष की मौजूदगी है, जो हिंदी की बोलियों को, अन्य भारतीय भाषाओं को हिंदी की अधीनता में देखे जाने का नजरिया देती है। इस चाहत में एक भरपूर हिंसा है, जबकि कोई भी भाषा हमेशा अपनी नम्रता, मेल-जोल, ग्रहणशीलता से संपन्न बनती है न कि अन्य के दमन से। निश्चय ही भाषा हो या राष्ट्र या कोई संस्कृति उसके विकास, प्रसार और परिष्कार का आधार प्रेम, संप्रेषणशीलता और मनुष्यता की बेहतरी का स्वप्न ही होना चाहिए।
इस प्रसंग में विडंबना यह रही कि आजादी के बाद हिंदी प्रेम को लेकर जो सांगठनिक प्रयत्न हुए हैं और जिनके फलस्वरूप जिस अवधारणा को मजबूती प्राप्त हुई है, उसमें हाशिए पर रही जनता के प्रति सरोकार की तुलना में भाषायी अधिनायकवाद, आक्रांता भाव के तत्व अधिक रहे हैं। यहां हिंदी को जन सामान्य की भाषा के बजाय उसको अंग्रेजी के स्थानापन्न के रूप में देखने की ख्वाहिश निहित रहती है। निश्चय ही यह सीधी-सादी मानवीय आकांक्षा नहीं है, बल्कि जाने-अनजाने इसमें एक औपनिवेशिक अवशेष की मौजूदगी है, जो हिंदी की बोलियों को, अन्य भारतीय भाषाओं को हिंदी की अधीनता में देखे जाने का नजरिया देती है। इस चाहत में एक भरपूर हिंसा है, जबकि कोई भी भाषा हमेशा अपनी नम्रता, मेल-जोल, ग्रहणशीलता से संपन्न बनती है न कि अन्य के दमन से। निश्चय ही भाषा हो या राष्ट्र या कोई संस्कृति उसके विकास, प्रसार और परिष्कार का आधार प्रेम, संप्रेषणशीलता और मनुष्यता की बेहतरी का स्वप्न ही होना चाहिए।
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