Text Practice Mode
साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565
created Oct 19th 2024, 05:03 by lovelesh shrivatri
2
324 words
17 completed
0
Rating visible after 3 or more votes
saving score / loading statistics ...
00:00
बहुत से सफल और चर्चित व्यक्ति दुनिया छोड़ जाते है। लोग उन्हीं को ज्यादा याद रखते हैं, जिनमें मानवीय गुण ज्यादा हों। व्यक्तिगत सफलता जल्द ही भुला दी जाती है। टाटा समूह को कामयाबी के शिखर पर ले जाने वाले रतन टाटा को भी उनकी उद्यमशीलता से ज्यादा सादगी, संवेदनशीलता व साहसिकता के लिए स्मरण किया जाएगा।
जब 1961 में चौबीस वर्षीय रतन टाटा ने विद्यार्थी जीवन के बाद टाटा समूह में काम शुरू किया तो उन्होंने पारिवारिक प्रतिष्ठान होने के बावजूद मैनेजमेंट ट्रेनी के रूप में छोटे कर्मचारियों के साथ काम करना पसंद किया। ऐसा करने ना सिर्फ उन्होंने कर्मचारियों को नजदीक से समझा, बल्कि निर्णयों में उनकी भागीदारी भी बढ़ाई। बाद के वर्षो में भी जब भी समूह के सामने कोई भी बड़ी समस्या आती तो वे कर्मचारियों के बीच मशविरा करने पहुंच जाते और फिर निर्णय लेते। सादगी तो उन्हें बचपन से पसंद थी। जब उन्हें महंगी गाडियां स्कूल छोडने जाती थी, तब वे विरोध करते थे। सार्वजनिक समारोह में उन्हें अक्सर छोटी कार से बिना ताम-झाम पहुंचते देख लोग चकित रह जाते थे।
धन अक्सर अहंकार अपने साथ लाता है। पर रतन टाटा अपने व्यवहार से इस बात को गलत साबित करते रहे। एक तरफ वे अपनी उद्यमशीलता के बूते टाटा समूह को ऊंचाइयों पर ले जा रहे थे, वहीं साथ-साथ उनमें संवेदनशीलता बढ़ती जा रही थी। सफलता की ऊंचाइयों पर पहुंच कर भी उन्होंने न्यूयार्क के कार्नल विश्वविद्यालय और हॉर्वर्ड बिजनेस स्कूल को हमेशा याद रखा और इन संस्थानों की इतनी मदद की, जितनी उनके पूरे इतिहास में किसी दानदाता ने नहीं की। भारत में भी शिक्षा, चिकित्सा, ग्रामीण विकास जैसे क्षेत्रों में वे खुले हाथ योगदान देते रहे। उनकी संवेदनशलता का ही एक उदाहरण हैं कि जब उन्होंने एक परिवार को बारिश में भीगते देखा तो संकल्प किया कि वे ऐसी सस्ती कार बनाएंगे, जिसको साधारण नागरिक भी खरीद सके। टाटा नैनी कार उनके इसी विचार की उपज थी, जो लखटकिया गाड़ी के नाम से लोकप्रिय हुई।
जब 1961 में चौबीस वर्षीय रतन टाटा ने विद्यार्थी जीवन के बाद टाटा समूह में काम शुरू किया तो उन्होंने पारिवारिक प्रतिष्ठान होने के बावजूद मैनेजमेंट ट्रेनी के रूप में छोटे कर्मचारियों के साथ काम करना पसंद किया। ऐसा करने ना सिर्फ उन्होंने कर्मचारियों को नजदीक से समझा, बल्कि निर्णयों में उनकी भागीदारी भी बढ़ाई। बाद के वर्षो में भी जब भी समूह के सामने कोई भी बड़ी समस्या आती तो वे कर्मचारियों के बीच मशविरा करने पहुंच जाते और फिर निर्णय लेते। सादगी तो उन्हें बचपन से पसंद थी। जब उन्हें महंगी गाडियां स्कूल छोडने जाती थी, तब वे विरोध करते थे। सार्वजनिक समारोह में उन्हें अक्सर छोटी कार से बिना ताम-झाम पहुंचते देख लोग चकित रह जाते थे।
धन अक्सर अहंकार अपने साथ लाता है। पर रतन टाटा अपने व्यवहार से इस बात को गलत साबित करते रहे। एक तरफ वे अपनी उद्यमशीलता के बूते टाटा समूह को ऊंचाइयों पर ले जा रहे थे, वहीं साथ-साथ उनमें संवेदनशीलता बढ़ती जा रही थी। सफलता की ऊंचाइयों पर पहुंच कर भी उन्होंने न्यूयार्क के कार्नल विश्वविद्यालय और हॉर्वर्ड बिजनेस स्कूल को हमेशा याद रखा और इन संस्थानों की इतनी मदद की, जितनी उनके पूरे इतिहास में किसी दानदाता ने नहीं की। भारत में भी शिक्षा, चिकित्सा, ग्रामीण विकास जैसे क्षेत्रों में वे खुले हाथ योगदान देते रहे। उनकी संवेदनशलता का ही एक उदाहरण हैं कि जब उन्होंने एक परिवार को बारिश में भीगते देखा तो संकल्प किया कि वे ऐसी सस्ती कार बनाएंगे, जिसको साधारण नागरिक भी खरीद सके। टाटा नैनी कार उनके इसी विचार की उपज थी, जो लखटकिया गाड़ी के नाम से लोकप्रिय हुई।
