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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565
created May 15th 2024, 05:48 by lucky shrivatri
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दुनिया लगातार प्रदूषण के जाल में फंसती जा रही है। दिन-ब-दिन प्रदूषण का स्तर बढ रहा है और इसमें आम जन का जीना मुहाल हुए जा रहा है। यह सर्वविदित तथ्य हैं, जिससे हर खास ओ आम का पाला लगातार पड़ता रहता है। आमजन और प्रकृति को अपनी बपौती समझने वाले आकाओं को सजग और आगाह करने का काम वैज्ञानिक हर रहे है। दुनिया भर में वायु प्रदूषण और इसे दूर करने के उपायों पर भी चर्चा होती है, पर सामान्य तौर पर ध्वनि प्रदूषण को लेकर सभी का रवैया अनदेखी करने वाला है। इसे लेकर समाज के स्तर पर भी खास जागरूकता नहीं है।
डेनेवर विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने इस समस्या की तरफ ध्यान आकर्षित किया और कहा है कि ध्वनि प्रदूषण को अनदेखा करना बहुत जोखिमपूर्ण साबित हो सकता ह। उन्होंने झीगुरों पर किए गए तीन साल के अध्ययन का उदाहरण भी दिया है। इस अध्ययन में बताया गया है कि 70 डेसिबल तक के शोर में रहने वाले झीगुरों के वयस्क होने तक जीवित रहने की संभावना 35 प्रतिशत कम हो जाती है। यह चिंताजनक खुलासा है। इसे सिर्फ इसलिए अनदेखा नहीं किया जा सकता कि झीगुर ही प्रभावित हो रहे है। प्रकृति में कोई भी जीव अकेला नहीं है। वह समस्त प्राणियां की श्रृंखला से जुड़ा हुआ है। इसका अर्थ है कि अन्य प्राणियों पर भी इसका असर आना ही है। असर आ भी रहा होगा। यह अलग बात है कि इंसान जानते बूझते हुए इस समस्या की अनदेखी कर रहा है। इंसान की बात इसलिए कि प्रकृति में कहीं भी किसी भी तरह की असमानता, अव्यवस्था और अंधेर पैदा हुआ है, तो उसके लिए केवल और केवल इंसान ही जिम्मेदार है। यह उजागर तथ्य है कि मानवजनित विभिन्न तरह के प्रदूषणों के कारण ही दुनिया के कई इलाकों में कीटों की संख्या तीस प्रतिशत तक घट गई है। ऐसा ही चलता रहा तो यह जल्दी ही चासीस और पचास प्रतिशत के स्तर को भी पार कर जाएगी। आदमी ही कल पुर्जो और तेज आवाज के उपकरणों के जरिए ध्वनि प्रदूषण पैदा कर रहा है। डॉक्टरों और वैज्ञानिकों के ये निष्कर्ष तो पहले से हमारे सामने हैं कि ध्वनि प्रदूषण श्रवण शक्ति को प्रभावित करता है। नींद, एकाग्रता और फिर पूरा शरीर इससे प्रभावित होता है। नसों की कई बीमारियों व माइग्रेन के कारणों में ध्वनि प्रदूषण भी शामिल है।
भारत के संदर्भ में बात करें तो ध्वनि प्रदूषण को रोकथाम की प्राथमिकताओं में नहीं रखा गया है। सुप्रीम कोर्ट तक की व्यवस्था सिर्फ रात दस बजे के बाद शोर की वर्जित करती है। इन निर्देशों की भी पालना नहीं हो पा रही है। दिन भर में शोर कितना नुकसान पहुंचा रहा है, इस पर भी सभी अंगों को ध्यान देना होगा और इस नुकसान को कम से कमतर करने के उपाय भी क्रमश: करने ही पडेंगे। हमारी खुद की सुरक्षा और प्रकृति की बेहतरी के लिए यह जरूरी है।
डेनेवर विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने इस समस्या की तरफ ध्यान आकर्षित किया और कहा है कि ध्वनि प्रदूषण को अनदेखा करना बहुत जोखिमपूर्ण साबित हो सकता ह। उन्होंने झीगुरों पर किए गए तीन साल के अध्ययन का उदाहरण भी दिया है। इस अध्ययन में बताया गया है कि 70 डेसिबल तक के शोर में रहने वाले झीगुरों के वयस्क होने तक जीवित रहने की संभावना 35 प्रतिशत कम हो जाती है। यह चिंताजनक खुलासा है। इसे सिर्फ इसलिए अनदेखा नहीं किया जा सकता कि झीगुर ही प्रभावित हो रहे है। प्रकृति में कोई भी जीव अकेला नहीं है। वह समस्त प्राणियां की श्रृंखला से जुड़ा हुआ है। इसका अर्थ है कि अन्य प्राणियों पर भी इसका असर आना ही है। असर आ भी रहा होगा। यह अलग बात है कि इंसान जानते बूझते हुए इस समस्या की अनदेखी कर रहा है। इंसान की बात इसलिए कि प्रकृति में कहीं भी किसी भी तरह की असमानता, अव्यवस्था और अंधेर पैदा हुआ है, तो उसके लिए केवल और केवल इंसान ही जिम्मेदार है। यह उजागर तथ्य है कि मानवजनित विभिन्न तरह के प्रदूषणों के कारण ही दुनिया के कई इलाकों में कीटों की संख्या तीस प्रतिशत तक घट गई है। ऐसा ही चलता रहा तो यह जल्दी ही चासीस और पचास प्रतिशत के स्तर को भी पार कर जाएगी। आदमी ही कल पुर्जो और तेज आवाज के उपकरणों के जरिए ध्वनि प्रदूषण पैदा कर रहा है। डॉक्टरों और वैज्ञानिकों के ये निष्कर्ष तो पहले से हमारे सामने हैं कि ध्वनि प्रदूषण श्रवण शक्ति को प्रभावित करता है। नींद, एकाग्रता और फिर पूरा शरीर इससे प्रभावित होता है। नसों की कई बीमारियों व माइग्रेन के कारणों में ध्वनि प्रदूषण भी शामिल है।
भारत के संदर्भ में बात करें तो ध्वनि प्रदूषण को रोकथाम की प्राथमिकताओं में नहीं रखा गया है। सुप्रीम कोर्ट तक की व्यवस्था सिर्फ रात दस बजे के बाद शोर की वर्जित करती है। इन निर्देशों की भी पालना नहीं हो पा रही है। दिन भर में शोर कितना नुकसान पहुंचा रहा है, इस पर भी सभी अंगों को ध्यान देना होगा और इस नुकसान को कम से कमतर करने के उपाय भी क्रमश: करने ही पडेंगे। हमारी खुद की सुरक्षा और प्रकृति की बेहतरी के लिए यह जरूरी है।
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