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Malti Computer Center Tikamgarh

created Mar 28th, 05:18 by Ram999


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सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) द्वारा डेटा की आखिरी किस्त जारी किये जाने के बाद, अब उस चुनावी वित्तपोषण की तकरीबन पूरी तस्वीर हासिल करना संभव हो गया है जो पहले एक गुप्त जरिया हुआ करता था। एसबीआई को कॉरपोरेट व्यक्तिगत चंदा-दाताओं द्वारा खरीदे गये और बाद में राजनीतिक दलों द्वारा भुनाये गये चुनावी बॉन्डों के लिए विशिष्ट संख्याओं (यूनिक नंबरों) का डेटा जारी करना पड़ा। इस डेटा (पहले दिया गया डेटा चंदा-दाताओं और दलों को आपस में जोड़ सकने वाली विशिष्ट संख्याओं के बगैर था) को जारी कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट को एसबीआई को दो बार कोंचना पड़ा। यह बैंक के रवैये पर उंगली उठाता है जिसने शुरू में यह सूचना जारी करने के लिए 30 जून, 2024 तक, यानी आम चुनाव के बाद की मोहलत मांगी थी। दूसरी तरफ, बॉन्ड खरीदने वाली कंपनियों और उन्हें भुनाने वाले दलों से जुड़ी सूचना के दो सेटों के बीच संबंध स्थापित करने के लिए एक सरल डेटा-मिलान करने में समाचार संगठनों को बस चंद घंटे लगे। डेटा पर एक सरसरी नजर डालने से ही उस दलील की व्यर्थता जाहिर होती है जो केंद्र सरकार ने चुनावी बॉन्डों की गोपनीयता की जरूरत के लिए पेश की थी, लेकिन जिसे शीर्ष अदालत ने दृढ़ता से खारिज कर दिया। कुछ राजनीतिक दलों को बड़े चंदे दिये जाने और बॉन्ड खरीदारों को बुनियादी ढांचे के भारी राशि वाले ठेके मिलने के बीच एक स्पष्ट सह-संबंध नजर आता है। कुछ मामलों में, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) या आयकर विभाग द्वारा जांच या कार्रवाई का सामना कर रहे प्रतिष्ठानों (एंटिटीज) और बाद में इन प्रतिष्ठानों या उनके प्रतिनिधियों द्वारा बॉन्ड खरीदे जाने के बीच एक मजबूत सह-संबंध है। खासतौर पर, ऐसे कई चंदा-दाताओं द्वारा खरीदे गये बॉन्ड बाद में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) द्वारा भुनाये गये।
शीर्ष 19 फर्मों (दिये गये चंदों की संचयी राशि के आधार पर) ने 2019 के मध्य से फरवरी 2024 तक (इस अवधि में 22 फर्मों ने 100 करोड़ रुपये या उससे अधिक के चंदे दिये), अन्य दलों के साथ-साथ, भाजपा को निरपवाद रूप से चंदा दिया। यह बताता है कि इन बॉन्डों का इस्तेमाल सत्ता प्रतिष्ठान की कृपा पाने के एक उपकरण की तरह किया गया। इन बॉन्डों के लिए एक विशिष्ट पहचान संख्या की एसबीआई के हाथों में मौजूदगी (जिससे उसके लिए लेन-देन की ऑडिट ट्रेल रखना संभव हो सकता था) और वित्त मंत्रालय द्वारा कुछ बॉन्डों को उनकी मियाद (खरीद के 15 दिन के भीतर) खत्म होने के बाद भुनाये जाने की इजाजत दिये जाने ने यह दिखाया कि इस योजना ने सत्तारूढ़ दल के लिए अनुचित फायदे की स्थिति पैदा की थी। यह साफ है कि इन बॉन्डों ने चुनाव अभियान और दलीय वित्तपोषण को सत्तारूढ़ दल के पक्ष में बहुत ज्यादा झुका दिया था। साथ ही, इसने चंदा देने की अनैतिक प्रेरणाओं पर भी पर्दा डाले रखा था। अब यह सिविल सोसाइटी पर निर्भर है कि वह मतदाताओं को इस योजना की असलियत के बारे में बताये और चंदों के एकांगीपन को लेकर सवाल खड़े करे। यह व्यवस्था को साफ-सुथरा करने की दिशा में बस पहला कदम होगा।
 
 

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