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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565
created Mar 20th, 04:08 by lovelesh shrivatri
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देश की शीर्ष अदालत ने इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को असंवैधानिक करार देने के फैसले के बाद अब स्टेट बैक ऑफ इंडिया के उस आवेदन को खारिज कर दिया है जिसमें उसने बॉन्ड की जानकारी सार्वजनिक करने के लिए 30 जून तक का वक्त मांगा था। सुप्रीम कोर्ट ने ताजा निर्देश में कहा हैं कि एसबीआइ को 12 मार्च तक यह जानकारी चुनाव आयोग को देनी होगी और चुनाव आयोग को इसे 15 मार्च तक अपनी वेबसाइट पर साझा करनी होगी। सुप्रीम कोर्ट ने जानकारी साझा करने में देरी के लिए एसबीआइ की सभी दलीलों को भी खारिज कर दिया।
राजनीतिक दलों को मिलने वाला संदेहजनक चंदा सदैव ऐसी प्रवृत्ति से जोड़कर देखा जाता हैं जिसमें देने वाले को बदले में कुछ लने की चाहत भी रहती है। मोटे तौर पर चुनावों में काले धन के इस्तेमाल को रोकने के लिए वर्ष 2018 में चुनावी बॉन्ड योजना शुरू की गई थी। इसके तहत कोई भी व्यक्ति या संस्था बैंक से निश्चित रकम के चुनवी बॉन्ड खरी कर अपनी पसंद के राजनीतिक दल को गुमनाम चंदे के रूप में दे सकता था। राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे की जानकारी इस तरह से गुप्त रखने पर समय-समय पर सवाल उठते रहे है। वह इसलिए भी कि कालेधन का इस्तेमाल भले ही इस प्रक्रिया से एक हद तक रूक गया लेकिन जब अधिकांश चुनावी बॉन्ड सत्ता पक्ष को ही मिलने लगे। धीरे-धीरे चुनावी बॉन्ड योजना की कई खामियां सामने आने लगी। मामला जब सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा तो उसने इसे असंवैधानिक करार दे दिया। वैसे सूचना के अधिकार के दौर में चुनावी चंदे को लेकर ऐसी गोपनलयता को उचित नहीं कहा जा सकता। एसबीआइ भले ही चुनावी बॉन्ड से जुड़ी जानकारी सार्वजनिक कर दे लेकिन भविष्य के लिए भी कोई न कोई पारदर्शी व्यवस्था चुनावी चंदे को लेकर करनी ही होगी। राजनीतिक दलों को आरोप प्रत्यारोप लगाने का मौका भी तब ही मिलता है जब किसी दल के मुकाबले दूसरे दलों को चंदा कम मिल रहा हो। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह जरूरी भी हैं कि चुनावों से जुड़ी हर प्रक्रिया में पारदर्शिता बरती जाए। खास तौर पर उस वक्त जब राजनीतिक दलों के खातों में धन के प्रवाह का मामला हो।
राजनीतिक दलों को मिलने वाला संदेहजनक चंदा सदैव ऐसी प्रवृत्ति से जोड़कर देखा जाता हैं जिसमें देने वाले को बदले में कुछ लने की चाहत भी रहती है। मोटे तौर पर चुनावों में काले धन के इस्तेमाल को रोकने के लिए वर्ष 2018 में चुनावी बॉन्ड योजना शुरू की गई थी। इसके तहत कोई भी व्यक्ति या संस्था बैंक से निश्चित रकम के चुनवी बॉन्ड खरी कर अपनी पसंद के राजनीतिक दल को गुमनाम चंदे के रूप में दे सकता था। राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे की जानकारी इस तरह से गुप्त रखने पर समय-समय पर सवाल उठते रहे है। वह इसलिए भी कि कालेधन का इस्तेमाल भले ही इस प्रक्रिया से एक हद तक रूक गया लेकिन जब अधिकांश चुनावी बॉन्ड सत्ता पक्ष को ही मिलने लगे। धीरे-धीरे चुनावी बॉन्ड योजना की कई खामियां सामने आने लगी। मामला जब सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा तो उसने इसे असंवैधानिक करार दे दिया। वैसे सूचना के अधिकार के दौर में चुनावी चंदे को लेकर ऐसी गोपनलयता को उचित नहीं कहा जा सकता। एसबीआइ भले ही चुनावी बॉन्ड से जुड़ी जानकारी सार्वजनिक कर दे लेकिन भविष्य के लिए भी कोई न कोई पारदर्शी व्यवस्था चुनावी चंदे को लेकर करनी ही होगी। राजनीतिक दलों को आरोप प्रत्यारोप लगाने का मौका भी तब ही मिलता है जब किसी दल के मुकाबले दूसरे दलों को चंदा कम मिल रहा हो। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह जरूरी भी हैं कि चुनावों से जुड़ी हर प्रक्रिया में पारदर्शिता बरती जाए। खास तौर पर उस वक्त जब राजनीतिक दलों के खातों में धन के प्रवाह का मामला हो।
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