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BUDDHA ACADEMY TIKAMGARH (MP) || ☺ || ༺•|✤ आपकी सफलता हमारा ध्येय ✤|•༻
created Mar 16th, 03:44 by subodh khare
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सेवा मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति है सेवा ही उसके जीवन का आधार है उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द के कथन का अभिप्राय युवावस्था के आगमन पर समझ में आने लगता है, जब व्यक्ति घर गृहस्थी के जंजाल में उलझने लग जाता है, वह अपनी पत्नी और संतान के लिए बहुत कुछ निस्पृह भाव से करने के लिए विवश हो जाता है। किसी बाह्म दबाव के कारण नहीं, बल्कि आन्तरिक प्रेरणा के कारण प्रकृति में सेवा का नियम अव्याहत गति से कार्य करता हुआ दिखाई देता है, सूर्य और चन्द्र विश्व को प्रकाश एवं उष्णता प्रदान करते हैं, वायु जीवनदायक श्वास प्रदान करती है, पृथ्वी रहने का स्थान देती है, वृक्ष छाया देते हैं, आदि वे ऐसा जीवन किसी प्रतिफल प्राप्ति की भावना से नहीं करते हैं, वे केवल अपने जन्मजात स्वभाववश ऐसा करते हैं, सड़क के किसी कोने में पड़े हुए घायल या बेहोश व्यक्ति को उठाकर जब अस्पताल ले जाते हैं, तब क्या हम यह सोचते हैं कि वह अच्छा होने पर हमको पुरस्कार देगा अथवा कभी हमारे घायल अथवा बेहोश हो जाने पर यह हमें अस्पताल पहुंचाएगा।
यह सेवा-भाव जब सप्रयास विकसित किया जाता है, तब वह व्यक्ति का सद्गुण एवं समाज की विभूति बन जाता है, जो लोग सेवा-भाव रखते हैं और स्वार्थ सिद्धि को जीवन का लक्ष्य नहीं बनाते, उनको सहयोग देने वालों की कमी नहीं रहती है, गोस्वामी तुलसीदास के अनुसार सेवा-धर्म कठिन जग जाना अर्थात् संसार जानता है कि सेवा करना बहुत कठिन काम है सेवा में स्वार्थ-त्याग और निरहंकारता परम आवश्यक है।
अहंकार रहित व्यक्ति विश्व के कण-कण को अपने समान समझता है उसके लिए सब आत्मवत् होते हैं कम से कम वह किसी को भी अपने से छोटा, तुच्छ अथवा हीन नहीं समझता है और प्राणिमात्र के साथ एकत्व की अनुभूति करता है। वह अपने प्रत्येक कार्य को सर्वव्यापी सेवा के भाव से करता है।
यह सेवा-भाव जब सप्रयास विकसित किया जाता है, तब वह व्यक्ति का सद्गुण एवं समाज की विभूति बन जाता है, जो लोग सेवा-भाव रखते हैं और स्वार्थ सिद्धि को जीवन का लक्ष्य नहीं बनाते, उनको सहयोग देने वालों की कमी नहीं रहती है, गोस्वामी तुलसीदास के अनुसार सेवा-धर्म कठिन जग जाना अर्थात् संसार जानता है कि सेवा करना बहुत कठिन काम है सेवा में स्वार्थ-त्याग और निरहंकारता परम आवश्यक है।
अहंकार रहित व्यक्ति विश्व के कण-कण को अपने समान समझता है उसके लिए सब आत्मवत् होते हैं कम से कम वह किसी को भी अपने से छोटा, तुच्छ अथवा हीन नहीं समझता है और प्राणिमात्र के साथ एकत्व की अनुभूति करता है। वह अपने प्रत्येक कार्य को सर्वव्यापी सेवा के भाव से करता है।
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