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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565
created Jun 23rd, 03:30 by lucky shrivatri
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एक पुरानी कहानी में जिसका उल्लेख महाभारत के उद्योग पर्व में मिलता है जिसमें कुरुराज धृतराष्ट्र की राज-सभा में विदुर कहते है कि कोई भी सभा (सही अर्थों में) तभी सभा होती हैं यदि वहां सयाने लोग अर्थात बडे-बूढे और परिपक्व बुद्धि वाले मौजूद हो, वृद्ध वे होते हैं जो केवल धर्म की बात ही बोलते है; और धर्म वह नहीं है जिसमें सत्य न हो, सत्य वह होता है जिसमें किसी तरह का छल-कपट न हो। कौरवों की उस राज-सभा में वृद्ध तो कई मौजूद थे पर किसी में भी सत्य कहने का साहस न था। सभा में बैठे शकुनि के छल के ताने-बाने के आगे सत्य का टिकना मुश्किल था। कुरुराज के मन में बड़ा द्वंद्व चल रहा था। धृतराष्ट्र के लिए इन्द्रप्रस्थ को पांडवों को देना किसी भी तरह से गवारा न था। वह पुत्र मोह में इतने विवश थे कि दुर्योधन से अलगाव की बात सोच कर ही विचलित हो उठते थे। इन परिस्थितियों में भी और कई बार अपमानित होने पर भी विद्वान और नीतिज्ञ विदुर ही ऐसे अकेले सभासद थे जो कभी सच कहने से पीछे नहीं हटते थे। यह प्रसंग भारतीय सभ्यता में धर्म के अनुशासन की स्मृति बनाए रखने के उद्यम को रेखांकित करता है। आज भारत की संसद में लोक सभा और राज्य सभा दो सभाएं है। ये देश की सर्वोच्च संस्थाएं है जिन पर देश के लिए रीति-नीति तजबीज करना और लागू करने की व्यवस्था निश्चित करने का दारोमदार है। इन सभाओं के दृश्य और होने वाले विमर्श चिंताजनक होते जा रहे हैं। लोकसभा और राज्यसभा की पिछली कुछ बैठकों के दृश्य खास तौर पर बड़े विचलित करने वाले थे। विपक्ष का धर्म सिर्फ सभा की कार्रवाई रोकना ही रह गया, दूसरी ओर सत्ता पक्ष किसी भी तरह अपनी राह चलने को उद्यत बना रहा। गणतंत्र की रक्षा के लिए शपथ लिए हुए जन-प्रतिनिधि संसद कर उस गण को बिसराने लगते है जिसके हित की रक्षा करना ही उनका एकमात्र कर्त्तव्य होता है और जिसके लिए उनको हर तरह की सुविधा प्रदान की गई है। यह सब साधारण जन और गणतंत्र के उन प्रेमियों के लिए पीड़ादायक होता है जो अपने मन में माननीय जन-प्रतिनिधियों से देश की उन्नति के लिए कुछ करने की आशा संजोए हुए है। राज सभा की चर्चाओं में धर्म सत्य और छल-कपट सब के सब एक-दूसरे के बड़े करीब खड़े दिखते है और यह अनदेखा करना कठिन हो जाता है कि सत्ता सुख के निहित स्वार्थ की रक्षा करने के लिए यह सब उन संसदीय पराम्पराओं के विरूद्ध होता जा रहा है जिनकी आधार-शिला पर देश का लोकतंत्र टिका हुआ है। इस सदंर्भ में भारत के लिए संविधान निर्माण के दायित्व का निर्वाह करने वाली संविधान सभा में होने वाली बहसें आंखें खोलने वाली हैं। 18 सितंबर 1949 को डॉ. आम्बेडकर ने इंडिया दैट इज भारत का प्रस्ताव किया जिसे सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया और जो संविधान में प्रयुक्त है। सभ्य लोगों के विचार-विमर्श को देखने के लिए संविधान सभा के दस्तावेज बड़े शिक्षाप्रद है।
