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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा (म0प्र0) संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565
created Jan 10th 2022, 08:46 by lucky shrivatri
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राजनीति अपनी जगह है और राष्ट्र प्रमुखों की सुरक्षा और सम्मान अपनी जगह। प्रधानमंत्री की सुरक्षा एक ऐसा मसला है जिसमें पक्ष और विपक्ष दोनों को एक साथ नजर आना चाहिए। खासकर भारत जैसे देश में, जिसने आतंकी घटनाओं में अपने दो शीर्ष नेताओं को गंवाया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सुरक्षा में जो चूक पंजाब में सामने आई है, उसके बाद हो रही राजनीति हमें चिंतित करती है कि क्या यही स्वस्थ लोकतंत्र है। घटना के बाद सत्ता पक्ष ने पंजाब की कांग्रेस सरकार पर इस तरह हमले शुरू कर दिये हैं जैसे जांच से पहले ही उन्हें मालूम हो गया हो कि प्रधानमंत्री पर हमले की आपराधिक साजिश राज्य सरकार ने रची है। दूसरी तरफ राज्य सरकार ने भी तथ्यों की तह में गए बिना यह घोषित कर दिया कि सुरक्षा में कोई चूक नहीं हुई है। गोया प्रधानमंत्री का बीच रास्ता 15-20 मिनट के लिए फंस जाना सामान्य बात हो।
प्रधानमंत्री हों या राष्ट्रपति या अन्य कोई वीवीआइपी, उनके सुरक्षा प्रोटोकॉल में सेंध के मसले पर पूरे देश को एक जैसा ही चिंतित होना चाहिए। यह पता लगाना चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों हुआ और सुनिश्चित करना चाहिए कि भविष्य में ऐसा न हो। आज प्रधानमंत्री भाजपा का है, कल कांग्रेस का हो सकता है, परसों किसी और पार्टी का। यदि सब कुछ दलगत राजनीति के आधार पर ही तय होने लगेगा तो एक समय हम ऐसी राजनीति करने के लायक ही नहीं बचेंगे। यह घटना पुन: ब्यूरोक्रेसी पर सवाल उठाती है। इससे पहले पश्चिम बंगाल चुनाव के समय भी प्रधानमंत्री की बैठक में राज्य के मुख्य सचिव नदारद रहे थे। पंजाब में भी मुख्य सचिव व पुलिस महानिदेशक प्रधानमंत्री के काफिले से दूर थे। प्रोटोकॉल के अनुसार उन्हें साथ होना चाहिए था।
सवाल उठता है कि क्या ब्यूरोक्रेसी सत्ताधारी दल के प्रति निष्ठा साबित करने में इतनी मशगूल हो गई है कि उसे जिम्मेदारियों का अहसास भी नहीं रहा। मुख्य सचिव कहीं व्यस्त थे तो डीजीपी क्या कर रहे थे? प्रधानमंत्री की सुरक्षा से बड़ी कौन सी ड्यूटी निभा रहे थे? जवाब तो वही दे सकते हैं। केंद्र सरकार ने जवाब तलब किया भी है। राज्य सरकार ने भी जांच कराने की बात कही है। केंद्रीय खुफिया एजेंसियों व स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप को भी क्लीन चिट नहीं मिलनी चाहिए। किसानों का प्रदर्शन आठ किलोमीटर दूर हो रहा था। यदि प्रधानमंत्री के काफिले को रोकने की आवश्यकता पड़ी भी तो ओवरब्रिज पर ही क्यों? सामान्य समझ कहती है कि ओवरब्रिज सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक जगह होता है। बेहतर यही होगा कि निष्पक्षता के साथ बिना किसी राजनीतिक आग्रह-दुराग्रह के मामले की जांच की जाए और जिम्मेदारी तय हो।
प्रधानमंत्री हों या राष्ट्रपति या अन्य कोई वीवीआइपी, उनके सुरक्षा प्रोटोकॉल में सेंध के मसले पर पूरे देश को एक जैसा ही चिंतित होना चाहिए। यह पता लगाना चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों हुआ और सुनिश्चित करना चाहिए कि भविष्य में ऐसा न हो। आज प्रधानमंत्री भाजपा का है, कल कांग्रेस का हो सकता है, परसों किसी और पार्टी का। यदि सब कुछ दलगत राजनीति के आधार पर ही तय होने लगेगा तो एक समय हम ऐसी राजनीति करने के लायक ही नहीं बचेंगे। यह घटना पुन: ब्यूरोक्रेसी पर सवाल उठाती है। इससे पहले पश्चिम बंगाल चुनाव के समय भी प्रधानमंत्री की बैठक में राज्य के मुख्य सचिव नदारद रहे थे। पंजाब में भी मुख्य सचिव व पुलिस महानिदेशक प्रधानमंत्री के काफिले से दूर थे। प्रोटोकॉल के अनुसार उन्हें साथ होना चाहिए था।
सवाल उठता है कि क्या ब्यूरोक्रेसी सत्ताधारी दल के प्रति निष्ठा साबित करने में इतनी मशगूल हो गई है कि उसे जिम्मेदारियों का अहसास भी नहीं रहा। मुख्य सचिव कहीं व्यस्त थे तो डीजीपी क्या कर रहे थे? प्रधानमंत्री की सुरक्षा से बड़ी कौन सी ड्यूटी निभा रहे थे? जवाब तो वही दे सकते हैं। केंद्र सरकार ने जवाब तलब किया भी है। राज्य सरकार ने भी जांच कराने की बात कही है। केंद्रीय खुफिया एजेंसियों व स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप को भी क्लीन चिट नहीं मिलनी चाहिए। किसानों का प्रदर्शन आठ किलोमीटर दूर हो रहा था। यदि प्रधानमंत्री के काफिले को रोकने की आवश्यकता पड़ी भी तो ओवरब्रिज पर ही क्यों? सामान्य समझ कहती है कि ओवरब्रिज सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक जगह होता है। बेहतर यही होगा कि निष्पक्षता के साथ बिना किसी राजनीतिक आग्रह-दुराग्रह के मामले की जांच की जाए और जिम्मेदारी तय हो।
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