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created Oct 19th 2021, 01:28 by shilpa ghorke
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यहां की सामाजिक और राजनीतिक बनावट ऐसी है कि गरीबी के दलदल से शिक्षा के बिना बाहर निकलना मुश्किल है। पग-पग पर कांटे बिछे हुए हैं। कहीं महाजनों की, साहूकारों, सूदखोरों, रसूखदारों, अपराधियों, भ्रष्टाचारियों, ढोंगियों, अंधविश्वासों, पोंगापंथियों, ब्राह्मणवादी, सामंतवादियों, लठैतों की मकड़जाल है। इसे समझना साधारण लोगों के वश की बात नहीं है। पढ़े-लिखे भी इस जकड़न में फंसे हुए हैं। याद है, मुजफ्फरपुर में गोपालगंज के दलित डीएम, जो पहले कुली थे, जी. कृष्णय्या की भीड़ ने पीट-पीट कर हत्या कर दी थी, जिसके आरोपी आनंद मोहन अभी जेल में हैं और करणी सेना उन्हें छुड़ाने के लिए आंदोलन करती है। रणवीर सेना के प्रमुख ब्रह्मेश्वर मुखिया के शव को आरा से पटना लाने की इजाजत तत्कालीन डीजीपी बिहार अभयानंद ने दिया था। कितना नंगा नाच हुआ था। ये सभी अपने आप को सभ्य कहते हैं, लेकिन दमन, शोषण, खून में भरा हुआ है। ऐसी शिक्षा का क्या औचित्य, जो मानव में जाति, धर्म से भेद करे। मनुवादी से अगर बहुजन समाज विकास की उम्मीद करता है, तो वह शिक्षित होकर भी अनपढ़ से गया-गुजरा है। अपना भविष्य खुद संगठित और शिक्षित होकर बनाएं। गरीब युवा इन झंझावातों से बाहर निकल कर सही शिक्षा, रोजगरोन्मुख शिक्षा प्राप्त करें। चकाचौंध की दुनिया से विद्या अर्जन के लिए कठिन परिश्रम और साधना करें। पर दुनिया को ज्ञान की रोशनी दिखाने वाले महात्मा बुद्ध, कबीर, रहीम, रैदास, आंबेडकर को हमसे दूर करने की साजिशें रची जा रही हैं। हम जितना समय धार्मिक प्रवचन सुनने, अनुष्ठान करने में गंवाते हैं, उतने समय में हम भारत के संविधान को पढ़ कर समझ सकते हैं, जिससे हमारा देश चल रहा है, लेकिन इसकी महत्ता न कोई धर्मगुरु बताता है, न पूजा समिति के आयोजक, लेकिन सबसे ज्यादा समय ऐसे ही लोगों को देते हैं। समय रहते समय का सही सदुपयोग कर मंजिल हासिल कर लेना ही श्रेयस्कर
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