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सॉंई कम्‍प्‍यूटर टायपिंग इंस्‍टीट्यूट गुलाबरा छिन्‍दवाड़ा म0प्र0 सीपीसीटी न्‍यू बैच प्रारंभ संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नं. 9098909565

created Sep 16th 2021, 03:54 by sandhya shrivatri


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कला मूल्‍यांकन की पश्चिम की दृष्टि हमारे यहां इस कदर हावी है कि हमारा अपना मूल प्राय: गौण हो जाता है। इसी कारण विलियम आर्चर ने कभी भारतीय संस्‍कृति के परिप्रेक्ष्‍य में मूर्तिकला, चित्र संगीत और नृत्‍य को अवर्णनीय बर्बयता का घृणास्‍पद स्‍तूप तक से अभिहित किया था। हालांकि विख्‍यात विद्वान जॉन वूडरफ ने इसके जवाब में इज इण्डिया सिविलाइज्‍ड? शीर्षक से तब महत्‍वपूर्ण पुस्‍तक लिखी थी। इसके जरिए उन्‍होंने प्रस्‍तावित किया भारतीय ऐसे अज्ञानपूर्ण आक्रमण की उपेक्षा करें। महर्षि अरविंद ने इसी संदर्भ में फाउंडेशन ऑफ इण्डियन कल्‍चर लिखी। असल में अंग्रेजी शिक्षा-दिक्षा और प्रभाव ने सौंदर्य संबंधी हमारी धारणाओं को यूरोप के दर्पण में देखने की एसी प्रवृत्ति विकसित की है कि हमारी अपनी कलाओं की विलक्षणता पर हमारा ध्‍यान ही नहीं जाता। यह भी सच है कि अपनी मौलिक दृष्टि से किसी ने विश्‍वभर में भारतीय कलाओं को स्‍थापित करने का कार्य किया तो वह अंग्रेजी शिक्षा-दिक्षा में पले-बढ़े विश्‍वविख्‍यात कला समीक्षक आनंद केंटिश कुमारस्‍वामी ही थे। पहले पहल उन्‍होने ही यह स्थिापित किया कि विश्‍व को बचाना है तो भारत की संस्‍कृति और उसकी कला-सम्‍पदा के अन्‍तर्निहित में जाना होगा। कुमारस्‍वामी ने इस महत्‍वपूर्ण पक्ष की ओर भी विश्‍व का ध्‍यान आकृष्‍ट किया कि भारत कला धर्म और आस्‍था से ही नहीं जुडा है बल्कि प्रत्‍यक्ष-परोक्ष तात्विक आशयों से भी गहरी दृष्टि के लिए है। पश्चिम की सौदर्य-दृष्टि सामंजस्‍य, आनुपा‍तिकता और शरीर-विज्ञान शास्‍त्र की बजाय मूर्तियों और चित्रों की भाव-भंगिमाओं में निहित रस-सृष्टि का संधान उन्‍होंने ही किया। शिव की नटराज मुर्ति, विष्‍णु के चतुर्भुज स्‍वरूप, बांसुरी बजाते कृष्‍ण के बांकपन की सूक्ष्‍म व्‍यााख्‍या में उन्‍होंने भारतीय कला के तात्विक रहास्‍यों को समझाते हुए कला समीक्षा की भी सर्वथा नीवन नींव स्‍थापित की। कुमारस्‍वामी ने भारतीय कलाकारों के सृजन में लय, ताल और आकार-प्रकार की भाव व्‍यंजना करते हुए मुगल और राजपूत कला की भी अर्थगर्भित व्‍याख्‍याएं की। उन्‍होंने ही स्‍थापित किया कि मुगल चित्रकला का धर्म से कोई संबंध नही हैं। भारतीय लघु चित्रकला ही राजपूत, राजस्‍थानी, मुगल और पहाड़ी चित्रकला है। अजंता और जैन हस्‍तलिखित पुस्‍तकों में चित्रित तस्‍वीरों के आधार पर उन्‍होंने मेवाड़, उदयपुर, मालवा, जोधपुूर, बीकानेर, जयपुर और किशनगंज आदि की राजपूत और राजस्‍थानी चित्रकला को शुद्ध भारतीय कला बताते हुए स्‍पष्‍ट किया कि इनमें ईरानी, चीनी और पाश्‍चात्‍य कला का प्रभाव नहीं है। बहरहाल, कुमारस्‍वामी भारतीय कला दृष्टि के अद्भुत विवेचक थे। पश्चिम से आक्रांत भाव-भव के दौर में विश्‍व को भारतीय कला दर्शन और उससे जुडे मर्म से जोड़ने वाले। उनके लिखे के आलोक में भारतीय कलाओं का सौंदर्य संधान आज की भी बड़ी जरूरत है।   

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