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राजीव शॉर्टहैण्ड टायपिंग इंस्टीट्यूट मुरैना BY- Rajeev sosarwar( Mob No. 6265692563)
created Sep 14th 2020, 14:11 by RajeevSosarwar
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पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने जब होश संभाला तब उन्होंने घर में घोर निर्धनता का राज देखा न खाने को रोटी, न पहनने का वस्त्र, तब रहने के लिए मकान का प्रश्न ही नहीं उठाता। उनके पिता ठाकुरदास दो रूपया मासिक पर नौकरी करते थे, घर की स्थिति जरा भी इस योग्य न थी कि माता-पिता विद्यासागर को पढ़ातें, किन्तु वे उसकी लगन देखकर थोड़ा बहुत पढ़ाने के लिए विवश हो ही गए। जिस समय वे अपने पुत्र के साथ मुदनीपुरी से कलकत्ता कुछ मेहनत मजदूरी करने पैदल चले जा रहे थे, किन्तु उस समय विद्यासागर ने मील पत्थरों पर लिखित अंकों से अँग्रेजी गिनती का ज्ञान प्राइज़ कर लिया। ग्राम पाठशाला से शिक्षा प्रारमभ करके ईश्वरचन्द्र ने सत्तरह वर्ष की आयु में पहुंचते-पहुचते अँग्रेजी की योग्यता तथा संस्कृति का पांडित्य प्राइज़ कर लिया। उनकी विद्वता से प्रसन्न होकर विद्वानों ने उन्हें विद्यासागर की उपाधि तथा सरकारी अधिकारियों ने फोर्ट विलियम कॉलेज में प्रधान पंडित का पद दिया। धोर निर्धनता के बीच पढ़-लिखकर विद्यासागर ने उपार्जन के क्षेत्र में पदार्पण किया। पचास रूपया मासिक वेतन का पद पाते ही ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने अपने वृद्ध पिता को उर्पाजन की चिन्ता से मुक्त कर दिया और प्रार्थना की कि वे अब घर रहकर जो कुछ न कुछ बन सके, ग्रामवासियों की सेवा करें। अनेक सम्बन्धी विद्यासागर को उनकी सफलता के लिए बधाई देने आए और बोले - ईश्वरचन्द्र अब तो तुम्हारे सारे दुख दूर हो गए, अब आराम से रहते हुए आनन्दपूर्वक अपना जीवन बिताओं, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर अपने इस सम्बन्धियों की बात सुनकर मुस्करा उठे और बोले, आपकी सद्भावनाओं के लिए धनयवाद किनतु सच बात यह है कि आप लोगों की यह सद्भावनाओं एक प्रकार से मेरे लिए अभिशाप ही है। आपको आर्शीवाद देना चाहिए था कि विद्यासागर तुमने जिस गरीबी का कष्ट स्वयं अनुभव किया है उसे कभी न भूलना और किसी गरीब की सहायता के लिए कभी मुँह न चुराना। दूसरों की सेवा सहायता करने की मेरी हार्दिक इच्छा ने मुझे अधिकाधिक परिश्रम करने के लिए प्रेरणा देकर पथ-प्रदर्शक का काम किया उस इच्छा की उपेक्षा कर भला मैं किस प्रकार अपने जीवन को आराम से बिताने की धृष्टता कर सकता हूँ। मेरा आराम, मेरा सुख तथा मेरा विश्राम तो समाज की सेवा और दीन-दु:खियों की सहायता करने में निहित है। विद्यासागर को गरीबों तथा दु:खियों की सहायता करनी थी, घर का तथा अपना खर्चा उसी पचास रूपये के वेतन से चलाना था। उन्होंने अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताएँ नहीं बढ़ाई।
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