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एक पाती आलस्य के नाम

created Jul 27th 2020, 11:27 by soni51253


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मेरे प्रिय आलस्य! मैंने जब से होश संभाला है, तुम्हें अपने आसपास ही पाया है। तुम मेरी रग-रग में समाए हुए हो। तुम मुझ जैसे तमाम प्राणियों में निःस्वार्थ संचारित होते हो। दुनिया में हर चीज के लिए मेहनत करनी पड़ती है। लेकिन तुम्हारे लिए नहीं। तुम अपने आप बढ़ते हो। तुम्हारा एक मौसेरा भाई मोटापा बिल्कुल तुम्हारी तरह ही है। बहुत भला, कभी साथ नहीं छोड़ता। तुम्हारे लिए तमाम बातें कही जाती हैं, उनमें से एक है- आलस्य ही सबसे बड़ा शत्रु होता है। पर मुझे लगता है यह सूक्ति मेरे लिए बिल्कुल विपरीत है। उस कलमुंहे परिश्रम को देखो, जो मेरे पास आना ही नहीं चाहता। कितनी भी शिद्दत से उसे बुलाऊं, नकचढ़ा आता ही नहीं। तो सीधी सी बात मुझे जान पड़ती है- जो लगा, सो सगा। कभी-कभी तो दिल कहता है कि यह भजन- तुम्हीं हो माता, पिता तुम्हीं हो.. तुम्हारे लिए ही मैं गाऊं। तुमको ही समर्पित कर दूं। मेरे लिए तो तुम हर जगह ही विद्यमान हो। पहले लगता था, शायद तुम थोड़े दिन के लिए ही मेरे पास आए हो तो तुमसे पूछूं- आलस्य तुम कब जाओगे, पर संकोचवश कभी पूछ नहीं सकी। अच्छा हुआ नहीं पूछा, वरना तो हम दोनों के ही मन में खटास जाती। आखिर हम दोनों को रहना तो साथ ही था। वैसे तो तुम मुझ जैसे बहुतों के मन में समाए हो, जैसे एक कृष्ण लाखों गोपियों के मन में समाए थे। मैं जानना चाहती हूं कि क्या तुम सभी से स्नेह रखते हो। मुझ पर जैसी तुम्हारी कृपादृष्टि है, जैसा आगाध-अट्टू प्रेम है, वैसा सभी से है क्या? मेरे प्रिय आलस्य, तुम मेरी रग-रग में बसे हो। मैं तुम्हारे बगैर रह नहीं पाऊंगी। तुम्हारे रहते मैंने कभी परिश्रम को आंख उठाकर भी नहीं देखा है। तुम्हारा मोल तो वही जान सकता है, तुम जिसके पास हो। मेरा खुराफाती दिमाग जब भी मुझे परेशान करता है। कुछ करने को कहता है, तुम तुरंत मेरे सामने होते हो। कह दो कि मरते दम तक मेरे साथ रहोगे। मैं जानती हूं तुम ना नहीं कहोगे। कह भी नहीं सकते आखिर तुम मेरे प्रिय जो ठहरे!

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