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BUDDHA ACADEMY TIKAMGARH (MP) || ☺ || ༺•|✤आपकी सफलता हमारा ध्येय✤|•༻
created Mar 27th 2020, 06:10 by SntshR
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इस साल रबी की लाखों एकड़ फसल बेमौसम बरसात के कारण बर्बाद हो गई। मार्च महीने में उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, हरियाणा और दिल्ली में घनघोर आंधी-तूफान और ओले पड़े। इसमें गेहूं, जौ, सरसों, अलसी, अरहर, मटर, आलू, और सब्जियों की लाखों एकड़ जमीन में लहलहाती फसलें जमीन पर लोटने या पानी में डूब कर सडने लगीं। उत्तर प्रदेश सरकार ने जिलाधिकारियाें का जायजा लेने और उसके मुताबिक किसानों को राहत देने की बात कही है। कुदरत किसानों पर आए दिन कहर ढाती रहती है।
केंद्र और राज्य सरकारें तुरंत राहत देकर मरहम लगाने की कोशिश करती हैं। यह एक रिवाज की तरह आजादी के बाद से निभाया जा रहा है। इससे किसानों को फौरी तौर पर कुछ राहत तो मिल जाती है, लेकिन उनकी मूल समस्याएं जस की तस बनी रहती हैं। आजादी के बाद से अब तक केंद्र मे कोई ऐसी सरकार नहीं आई, जिसने खेती-किसानी को सबसे कठिन और अनिश्चित धंधे से निकाल कर सरल और निश्चित आय का बनाने के लिए काेई ठोस कदम उठाया हो। केंद्र और राज्य सरकारों की नीतियों में किसानों को लालीपॉप थमाने के अलावा कोई ठोस नीति या योजना नहीं रही। इसलिए समस्याएं लगातार बढ़ती जाती हैं।
दरअसल, भारत सहित दुनिया के सभी देशों की नीतियां खेती-किसानी के प्रति नकारात्मक रही हैं। मौजूदा विकास मॉडल सुख-सुविधाओं से सम्पन्न शहर पर आधारित है। गावों को विकसित करके उन्हें पूर्ण सक्षम बनाने की योजना, भारतीय कृषि नीति का हिस्सा कभी नहीं रही। गौरतलब है कि आजादी के पहले भारत का किसान गांव छोड़कर शहरों की ओर पलायन करने की कभी नहीं सोचता था।
कुदरत की मार और विदेशी शासन की किसान-विरोधी नीतियों के कारण भी किसान अपना पुस्तैनी गांव एकमात्र परिवार का सहारा खेती छोड़ने के लिए नहीं सोचता था। ऐसा क्यो हो गया कि आजादी के बाद किसान धीरे-धीरे अपना पुस्तैनी काम-धंधा छोड़कर शहर-कस्बों की ओर रूख करने लगा? शायद केंद्र और राज्य सरकारों ने कभी इस बारे में संजीदगी से सोचा ही नहीं।
विकसित देशों में कृषि वहां की अर्थव्यवस्था का प्रमुख अंग नहीं है, इसलिए वहां कृषि और किसानी उनकी योजनाओं में कोई खास महत्व नहीं रखते। इसके बावजूद विकसित देशों के किसानों को वहां की सरकारें जो सुविधाएं, राहत, छूट और मदद देती है, उससे वहां का किसान अमन-चैन और सम्मान की जिंदगी जीता है। इसलिए कुदरत का कहर या अन्य समस्याओं की वजह से वहां का किसान आत्महत्या नहीं करता और न ही अनिश्चित के भंवर में डूबता-उतराता है। पर वैश्विक स्तर पर कृषि की जो नीतियां चल रही हैं, वे किसानों के लिए किसी भी तरह फायदेमंद और राहत देने वाली नहीं हैं।
केंद्र और राज्य सरकारें तुरंत राहत देकर मरहम लगाने की कोशिश करती हैं। यह एक रिवाज की तरह आजादी के बाद से निभाया जा रहा है। इससे किसानों को फौरी तौर पर कुछ राहत तो मिल जाती है, लेकिन उनकी मूल समस्याएं जस की तस बनी रहती हैं। आजादी के बाद से अब तक केंद्र मे कोई ऐसी सरकार नहीं आई, जिसने खेती-किसानी को सबसे कठिन और अनिश्चित धंधे से निकाल कर सरल और निश्चित आय का बनाने के लिए काेई ठोस कदम उठाया हो। केंद्र और राज्य सरकारों की नीतियों में किसानों को लालीपॉप थमाने के अलावा कोई ठोस नीति या योजना नहीं रही। इसलिए समस्याएं लगातार बढ़ती जाती हैं।
दरअसल, भारत सहित दुनिया के सभी देशों की नीतियां खेती-किसानी के प्रति नकारात्मक रही हैं। मौजूदा विकास मॉडल सुख-सुविधाओं से सम्पन्न शहर पर आधारित है। गावों को विकसित करके उन्हें पूर्ण सक्षम बनाने की योजना, भारतीय कृषि नीति का हिस्सा कभी नहीं रही। गौरतलब है कि आजादी के पहले भारत का किसान गांव छोड़कर शहरों की ओर पलायन करने की कभी नहीं सोचता था।
कुदरत की मार और विदेशी शासन की किसान-विरोधी नीतियों के कारण भी किसान अपना पुस्तैनी गांव एकमात्र परिवार का सहारा खेती छोड़ने के लिए नहीं सोचता था। ऐसा क्यो हो गया कि आजादी के बाद किसान धीरे-धीरे अपना पुस्तैनी काम-धंधा छोड़कर शहर-कस्बों की ओर रूख करने लगा? शायद केंद्र और राज्य सरकारों ने कभी इस बारे में संजीदगी से सोचा ही नहीं।
विकसित देशों में कृषि वहां की अर्थव्यवस्था का प्रमुख अंग नहीं है, इसलिए वहां कृषि और किसानी उनकी योजनाओं में कोई खास महत्व नहीं रखते। इसके बावजूद विकसित देशों के किसानों को वहां की सरकारें जो सुविधाएं, राहत, छूट और मदद देती है, उससे वहां का किसान अमन-चैन और सम्मान की जिंदगी जीता है। इसलिए कुदरत का कहर या अन्य समस्याओं की वजह से वहां का किसान आत्महत्या नहीं करता और न ही अनिश्चित के भंवर में डूबता-उतराता है। पर वैश्विक स्तर पर कृषि की जो नीतियां चल रही हैं, वे किसानों के लिए किसी भी तरह फायदेमंद और राहत देने वाली नहीं हैं।
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