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BUDDHA ACADEMY TIKAMGARH (MP) || ☺ || ༺•|✤आपकी सफलता हमारा ध्‍येय✤|•༻

created Mar 19th 2020, 09:59 by


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एक महीने के भीतर यह दूसरा मौका है जब स्‍त्री और पुरुष के बीच बराबरी की मांग पर आधारित एक अहम लड़ाई को बड़ी कामयाबी मिली है। पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने सेना में शॉर्ट सर्विस कमीशन के तहत आने वाली महिला अफसरों को स्‍थायी कमीशन पाने का हकदार होने के पक्ष में फैसला दिया था। अब नेवी यानी नौसेना में भी अदालत ने महिलाओं के हक में फैसला सुनाते हुए साफ लहजे में कहा कि जब केंद्र सरकार ने एक बार महिला अधिकारियों की भर्ती के लिए वैधानिक अवरोध हटा दिया तो उसके बाद नौसेना में महिलाओं को स्‍थायी कमीशन प्रदान करने में लैंगिक भेदभाव नहीं किया जा सकता। यों इसके पहले महिलाओं की भर्ती को लेकर जिस तरह के अवरोध थे, वे भी महज सामाजिक पूर्वाग्रहों पर आधारित थे और उसे हटाना एक सभ्‍य और लोकतांत्रिक समाज की जिम्‍मेदारी थी। लेकिन जब उन अवरोधों पर विचार करके उन्‍हें खत्‍म किया गया, तो लैंगिक स्‍तर पर भेदभाव वाली परंपरा को कायम रखने का कोई मतलब नहीं था। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने अगर ऐसे आग्रहों को मानने से इनकार किया और बराबरी के हक में फैसला दिया तो इसे व्‍यवस्‍था में बदलाव को जगह देने की प्रक्रिया कहा जा सकता है।
    विडंबना यह है कि एक लोकतांत्रिक और विकासमान समाज में जहां सरकारों और समूचे सत्‍ता-संस्‍थानों को अपनी ओर से सामाजिक गैर बराबरी के पैमानों को खत्‍म करके समानता आधारित समाज की जमीन मजबूत करने की पहलकदमी करनी चाहिए, वहीं कई बार इसके खिलाफ दलीलें पेश करके जड़ता और यथास्थिति बनाए रखने की कोशिश की जाती है। पहले सेना में और फिर नौसेना में महिला अधिकारियों को स्‍थायी कमीशन देने के मसले पर सरकार ने जैसा संकीर्ण रुख अपनाया, वह अफसोसजनक है। अदालत में सरकार ने महिलाओं को स्‍थायी कमीशन देने का विरोध करने के लिए सामाजिक स्‍तर पर पारंपरिक मानसिकता, पूर्वाग्रहों का ही हवाला दिया।
    मसलन सरकार का कहना था कि रूसी जहाजों में महिलाओं के लिए शौचालय नहीं होने की वजह से नौसेना में महिलाओं को समुद्री ड्यूटी नहीं दी जा सकती। सवाल है कि किसी व्‍यक्ति या महिलाओं को अवसर देने के लिए कसौटी के तौर पर किसी जहाज में ढांचागत कमी और संसाधनों के अभाव को बहाना कैसे बनाया जा सकता है।

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