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साई टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 सीपीसीटी न्यू बैंच प्रारंभ संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नं. 9098909565
created Feb 25th 2020, 02:37 by vinitayadav
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छत्तीसगढ़ सरकार ने फैसला लिया है कि वह प्रदेश के आदिवासी बहुत इलाकों में बच्चों को प्राथमिकता शिक्षा उनकी मातृभाषाओं में, आदिवासी भाषाओं में देने की पहल करेगी। सरकार के इस फैसले से यह बहस छिड़ गई है कि भूमंडलीकरण के दौर में हमें अंग्रेजी शिक्षा की ओर बढ़ना चाहिए या मातृभाषाओं में शिक्षा की वकालत करनी चाहिए। अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस ने इस बहस को ज्यादा प्रासंगिक बना दिया हैं।
भारत सरकार ने भी पिछले वर्षों में मातृभाषा दिवस मनाने पहल की हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मातृभाषा दिवस मनाने की जिम्मेदारी राजभाषा विभागों को दी गई है जिससे यह हिंदी दिवस में तबदील होता जा रहा है, जबकि हम जानते है कि भारत में 700 ज्यादा जीवित भाषाएं है और उनमें से कई खतरे में हैं। कुछ समय पहले वडोदरा के भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर के सर्वे के जरिए यह चिंताजनक खुलासा हुआ कि पिछले पांच दशक में भारत में बोली जाने वाली 220 से अधिक भाषाएं गायब हो गई हैं। उपेक्षित भाषाओं के दस्तावेजीकरण और संरक्षण के उद्देश्य से 1996 में भाषा ट्रस्ट की स्थापना हुई और धीरे-धीरे इसका दायरा बढ़ता चला गया।
ऐसे में छत्तीसगढ़ सरकार के इस फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए। भूमंडलीकरण से पैदा हुई नई आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था ने आदिवासी भाषा-संस्कृति और उनके जीवन के समक्ष अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया हैं। एक भाषा का मरना उस पूरी ज्ञान पंरपरा का खत्म होना है।
भाषाओं को बचाने में निश्चित तौर पर सरकारी प्रयास मददगार साबित हो सकते हैं। भारतीय संदर्भ में खासी भाषा इसका उदाहरण है, जो पहले यूनेस्को की खतरे की स्थिति वाली भाषाओं में शामिल थी, लेकिन मेघालय सरकार द्वारा उसे कामकाज की भाषा बनाने और विभिन्न क्षेत्रों में इस्तेमाल शुरू करने से उसे नया जीवन मिल गया हैं।
भाषा के सवाल पर सोचते वक्त हमें लोकतंत्र की मूल प्रतिज्ञा जनता की भागीदारी को याद रखना है। अगर हम सत्ता में जनता की भागीदारी के पक्षधर हैं तो हमें मातृभाषाओं को बचाना और उचित स्थान देना होगा। व्यक्ति जितनी भाषाएं सीखे, उतना अच्छा है, लेकिन मातृभाषा की कीमत पर नहीं। भाषाएं हमारी धरोहर हैं। इनमें हमारे पुरखों की स्मृतियां और ज्ञान संरक्षित हैं। यह जरूरी हैं कि हम भाषाओं के मसले पर संवेदनशील हों और मर रही भाषाओं को बचाने के लिए आगे आए।
भारत सरकार ने भी पिछले वर्षों में मातृभाषा दिवस मनाने पहल की हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मातृभाषा दिवस मनाने की जिम्मेदारी राजभाषा विभागों को दी गई है जिससे यह हिंदी दिवस में तबदील होता जा रहा है, जबकि हम जानते है कि भारत में 700 ज्यादा जीवित भाषाएं है और उनमें से कई खतरे में हैं। कुछ समय पहले वडोदरा के भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर के सर्वे के जरिए यह चिंताजनक खुलासा हुआ कि पिछले पांच दशक में भारत में बोली जाने वाली 220 से अधिक भाषाएं गायब हो गई हैं। उपेक्षित भाषाओं के दस्तावेजीकरण और संरक्षण के उद्देश्य से 1996 में भाषा ट्रस्ट की स्थापना हुई और धीरे-धीरे इसका दायरा बढ़ता चला गया।
ऐसे में छत्तीसगढ़ सरकार के इस फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए। भूमंडलीकरण से पैदा हुई नई आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था ने आदिवासी भाषा-संस्कृति और उनके जीवन के समक्ष अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया हैं। एक भाषा का मरना उस पूरी ज्ञान पंरपरा का खत्म होना है।
भाषाओं को बचाने में निश्चित तौर पर सरकारी प्रयास मददगार साबित हो सकते हैं। भारतीय संदर्भ में खासी भाषा इसका उदाहरण है, जो पहले यूनेस्को की खतरे की स्थिति वाली भाषाओं में शामिल थी, लेकिन मेघालय सरकार द्वारा उसे कामकाज की भाषा बनाने और विभिन्न क्षेत्रों में इस्तेमाल शुरू करने से उसे नया जीवन मिल गया हैं।
भाषा के सवाल पर सोचते वक्त हमें लोकतंत्र की मूल प्रतिज्ञा जनता की भागीदारी को याद रखना है। अगर हम सत्ता में जनता की भागीदारी के पक्षधर हैं तो हमें मातृभाषाओं को बचाना और उचित स्थान देना होगा। व्यक्ति जितनी भाषाएं सीखे, उतना अच्छा है, लेकिन मातृभाषा की कीमत पर नहीं। भाषाएं हमारी धरोहर हैं। इनमें हमारे पुरखों की स्मृतियां और ज्ञान संरक्षित हैं। यह जरूरी हैं कि हम भाषाओं के मसले पर संवेदनशील हों और मर रही भाषाओं को बचाने के लिए आगे आए।
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