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created Feb 24th 2020, 04:21 by SARITA WAXER
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दिल्ली के शाहीन बाग इलाके में बीते दो माह से दिया जा रहा जो धरना लाखों लोगों की नाक में दम किए हुए है उसके यदि खत्म होने के आसार नहीं दिख रहे हैं तो इसकी एक वजह न्यायपालिका का अति उदार रवैया भी है। यह घोर निराशाजनक है कि पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने धरना दे रहे लोगों को सड़क खाली करने के स्पष्ट निर्देश देने से इन्कार किया, फिर मामला जब उच्चतम न्यायालय गया तो उसने धरना दे रहे लोगों को समझाने-बुझाने के लिए वार्ताकार नियुक्त कर दिए। ऐसा करके सड़क पर काबिज होकर की जा रही अराजकता को एक तरह से प्रोत्साहित ही किया गया।क्या अब जहां भी लोग अपनी मांगों को लेकर सड़क या फिर रेल मार्ग पर कब्जा करके बैठ जाएंगे वहां सुप्रीम कोर्ट अपने वार्ताकार भेजेगा? यदि नहीं तो फिर शाहीन बाग के मामले में नई नजीर क्यों? समझना कठिन है कि जब उच्चतम न्यायालय ने यह माना भी और कहा भी कि इस तरह रास्ता रोककर धरना देना अनुचित है तब फिर उसने शाहीन बाग इलाके की नोएडा से दिल्ली को जोड़ने वाली उस सड़क को खाली कराने के आदेश देने की जरूरत क्यों नहीं महसूस की जिसका इस्तेमाल प्रतिदिन लाखों लोग करते हैं? इससे दुखद-दयनीय और कुछ नहीं कि मुट्ठी भर लोग सड़क पर कब्जा करके लाखों नागरिकों के धैर्य की परीक्षा ले रहे हैं और फिर भी सुप्रीम कोर्ट तत्काल किसी फैसले पर पहुंचने के बजाय तारीख पर तारीख देना पंसद कर रहा है। नि:संदेह ऐसा नहीं हो सकता कि सुप्रीम कोर्ट इस तथ्य से परिचित न हो कि शाहीन बाग की सड़क बंद होने से हर दिन लाखों लोगों को परेशानी उठानी पड़ रही है। क्या आधे-पौने की घंटे की दूरी तीन-चार घंटे में तय करने को मजबूर लाखों लोगों के समय और श्रम का कोई मूल्य नहीं? क्या ये लाखों लोग कमतर श्रेणी के नागरिक हैं, जो उनकी सुध लेने से इन्कार किया जा रहा है और वह भी दो माह से अधिक समय से? आखिर जब सुप्रीम कोर्ट अनुचित तरीके से धरना-प्रदर्शन कर रहे लोगों के पास अपने वार्ताकार नहीं भेजता तब फिर उसने शाहीन बाग में लाखों लोगों को तंग कर रहे प्रदर्शनकारियों के पास अपने वार्ताकार क्यों भेजे? हैरत नहीं कि ये वार्ताकार नाकाम हैं। इस नाकामी की वजह यही है कि धरने पर बैठे लोग एक तो काल्पनिक भय से ग्रस्त हैं और दूसरे, वे तुक एवं तर्क की बात सुनने को तैयार नहीं। इतना ही नहीं, उन्होंने यह जिद भी पकड़ी है कि पहले उनकी मांग मानी जाए और नागरिकता संशोधन कानून रद्द किया जाए। क्या यह घोर अराजक व्यवहार नहीं?
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