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सॉंई टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 सीपीसीटी न्यू बैच प्रारंभ संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नं. 9098909565
created Feb 22nd 2020, 02:48 by Shankar D.
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कई मुद्दे बोतल में बंद जिन्न की तरह होते हैं। कोई बयानवीर ढक्कन खाेल देता है और मुद्दा उछलकर बाहर आ जाता है। टीवी चैनलों के प्लेग्राउंड में फिर मुद्दो को फुटबॉल मानकर खेला जाता है। स्टूडियो में बिना सूत-कपास के राजनेता आपस में लट्ठ भांजते हैं। इस लट्ठ भाजन कार्यक्रम में न्यूज चैनल के एंकर इस तरह शामिल होते है, जैसे उनकी निजी जमीन पर किसी ने कब्जा कर लिया हो और दुश्मन को चित कर देना है।
खैर, चंद दिन पहले मैंने देखा कि जनसंख्या नियंत्रण का मुद्दा फिर बोतल से बाहर आ गया था। एक बयानवीर चाहते थे कि देश में दो बच्चों का कानून लागू हो। इंदिराजी के जमाने में भी परिवार नियोजन के संदर्भ में हम दो, हमारे दो, का जुमला खूब उछाला जाता है, उसका नीचे आना नियति है, सो नारा जैसे उछला वैसे ही धम्म से नीचे भी आ गिरा। लेकिन, प्रधानमंत्री जी मन की बात सुनते हैं। डर है कि कहीं उनके मन ने भी दो बच्चों वाले कानून की वकालत कर दी तो। लोग उनका साथ देंगे, क्योंकि सभी ने अधिक आबादी एक अभिशाप निबंध पढ़ा है। अधिक आबादी एक वरदान वाला निबंध कभी पढ़ा नहीं, इसलिए उसके फायदे भी नहीं जानते। मेरा मानना हैं कि आज के दौर में हम दो, हमारे चार-छह का नारा दिया जाना चाहिए। मेरा ऐसा मानने की कई वजह हैं। ट्रैफिक की चिल्ल-पौं के बीच सड़क पर रोज लड़ाई-झगड़े होते है। जिस कार में चार-छह लोग बैठे हों, उससे सामने वाला नही उलझता। रोड रेज में हमेशा अकेला बंदा ही पिटता है। घर में तीन-चार बच्चे हों तो एक बच्चे को मां-बाप सेना में भेज सकते हैं, वरना बच्चे को सेना में भेजने का वे रिस्क नहीं लेते और सेना को विज्ञापन देने पड़ते हैं कि आ जाओ देश सेवा करने। चार-छह बच्चों की स्थिति में एक बच्चा स्थायी तौर पर आंदोलनों को समर्पित किया जा सकता है। आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाते हुए घर का एक बंदा राजनीति की राह पकड़ सकता है। राजनीति में मंत्री पद मिल जाए तो ठेके दिलाने के लिए अपने खास चार-छह लोग ही न हों, तो भी क्या फायदा मंत्री बनने का? बच्चों को राजनीति ही करानी हो तो बच्चो को अलग-अलग पार्टियों का सदस्य बनाया जा सकता हैं ताकि घर में मलाई आती रहे।
वैसे, जिस देश में कभी कंपाउंडर तो कभी सफाईकर्मी ऑपरेशन करते पाए जाते हों, लोग ट्रैफिक नियमों के पालन को पाप मानते हों, बड़े सरकारी अस्पताल में मरीज को भर्ती कराना विश्वयुद्ध लड़ने सरीखा हो, और मौत सिर्फ एक आंकड़ा हो, वहां बच्चे ज्यादा ही होने चाहिए। ऐसा लोग सोचते है। जो कि गलत है।
खैर, चंद दिन पहले मैंने देखा कि जनसंख्या नियंत्रण का मुद्दा फिर बोतल से बाहर आ गया था। एक बयानवीर चाहते थे कि देश में दो बच्चों का कानून लागू हो। इंदिराजी के जमाने में भी परिवार नियोजन के संदर्भ में हम दो, हमारे दो, का जुमला खूब उछाला जाता है, उसका नीचे आना नियति है, सो नारा जैसे उछला वैसे ही धम्म से नीचे भी आ गिरा। लेकिन, प्रधानमंत्री जी मन की बात सुनते हैं। डर है कि कहीं उनके मन ने भी दो बच्चों वाले कानून की वकालत कर दी तो। लोग उनका साथ देंगे, क्योंकि सभी ने अधिक आबादी एक अभिशाप निबंध पढ़ा है। अधिक आबादी एक वरदान वाला निबंध कभी पढ़ा नहीं, इसलिए उसके फायदे भी नहीं जानते। मेरा मानना हैं कि आज के दौर में हम दो, हमारे चार-छह का नारा दिया जाना चाहिए। मेरा ऐसा मानने की कई वजह हैं। ट्रैफिक की चिल्ल-पौं के बीच सड़क पर रोज लड़ाई-झगड़े होते है। जिस कार में चार-छह लोग बैठे हों, उससे सामने वाला नही उलझता। रोड रेज में हमेशा अकेला बंदा ही पिटता है। घर में तीन-चार बच्चे हों तो एक बच्चे को मां-बाप सेना में भेज सकते हैं, वरना बच्चे को सेना में भेजने का वे रिस्क नहीं लेते और सेना को विज्ञापन देने पड़ते हैं कि आ जाओ देश सेवा करने। चार-छह बच्चों की स्थिति में एक बच्चा स्थायी तौर पर आंदोलनों को समर्पित किया जा सकता है। आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाते हुए घर का एक बंदा राजनीति की राह पकड़ सकता है। राजनीति में मंत्री पद मिल जाए तो ठेके दिलाने के लिए अपने खास चार-छह लोग ही न हों, तो भी क्या फायदा मंत्री बनने का? बच्चों को राजनीति ही करानी हो तो बच्चो को अलग-अलग पार्टियों का सदस्य बनाया जा सकता हैं ताकि घर में मलाई आती रहे।
वैसे, जिस देश में कभी कंपाउंडर तो कभी सफाईकर्मी ऑपरेशन करते पाए जाते हों, लोग ट्रैफिक नियमों के पालन को पाप मानते हों, बड़े सरकारी अस्पताल में मरीज को भर्ती कराना विश्वयुद्ध लड़ने सरीखा हो, और मौत सिर्फ एक आंकड़ा हो, वहां बच्चे ज्यादा ही होने चाहिए। ऐसा लोग सोचते है। जो कि गलत है।
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