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BUDDHA ACADEMY TIKAMGARH (MP)

created Feb 24th 2018, 05:43 by subodh khare


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वह आराम से आठ बजे सोकर उठती, चाय पीती, फिर नहा-धोकर सज-धजकर बैठ जाती, लोगों से चहक-चहककर बातें करती, क्‍योंकि मायका बगल में होने के कारण उसे माता-पिता से देर होने का एहसास ही नहीं हुआ, ग्‍यारह-बाहर बजे अपने कमरे में चली जाती और घंटो सोती रहती, केवल खाने चाय के लिए निकलती, सुबह-शाम उसके भतीजे-भतीजी डिब्‍बा लिए हाजि़र रहते, 'मम्‍मी ने दिया है, बुआ को बहुत पसंद है, बार-बार नाम लेकर पुकारने पर भी ऋषभ ने जवाब नहीं दिया, चाय ठंडी हुई जा रही थी, इसलिए विवश होकर मैं ही ऊपर पहुंच गई, जहां रिया अपनी छत पर खड़ी उससे बतिया रही थी, उनके प्रेमभरे 'गुटर गूं' में मेरे तीक्ष्‍ण स्‍वर ''चाय पीनी है?'' ने विघ्‍न डाल दिया, रिया वहां से टली नहीं, मुस्‍कुराकर बोली, 'नमस्‍ते आंटीजी' मैंने अभिवादनर का जवाब दिया और पैर पटकती नेच उतर आई, 'बेशरम कहीं की, मां के सामने ही उसके बेटे से प्रेम की पींगें बढ़ा रही है, कोई लिहाज़-संकोच है ही नहीं, मां, कहां है मेरी चाय, नीचे आकर ऋषभ ने पूछा, देख ऋषभ अब तू बच्‍चा नहीं है, एक जिम्‍मेदार बैंक ऑफिसर है, छत के उस कोने में खड़े तुम दोनों क्‍या खुसुर-फुसुर करते रहते हो, बचपन में साथ खेलते थे, मैंने ध्‍यान नहीं दिया, बड़े हुए तो एक ही कॉलेज में थे, सो मैं चुप रही, लेकिन अब, अब क्‍या बातें होती हैं, मां हमने बचपन से लेकर अब तक एक लंबा समय साथ में बिताया है, अब तो हमें एक-दूसरे से बात करने की आदत हो गई है, तुम व्‍यर्थ ही चिंता करती रहती हो, हमारे बीच ऐसा कुछ भी तो नहीं है, हम सिर्फ बात ही तो करते हैं, बात बढ़ते समय नहीं लगता, मेरी भृकुटी में बल पड़ रहे थे, अपने योग्‍य सुंदर बेटे की पड़ोस की साधारण-सी रिया से नज़दीकियां मुझसे बर्दाश्‍त नहीं हो रही थीं, ऋषभ के कुछ भी तो नहीं है, कहने पर भी मुझे विश्‍वास नहीं हुआ रिया के बदले रुख पर मैं हैरा-परेशान रहती थी, आजकल आए दिन कभी पकौड़े की प्‍लेट, तो कभी अचार की शीशी लिए हाजि़र हो जाती थी, ऐसे ही एक दिन वो घर पर धमकी, उसे देख मैंने कहा, 'सूट तो बड़ा सुंदर है, इसे दिखाने आई थी या पकौड़े देने?

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