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मैं झूठ नहीं बोलूँगा

created Jan 13th 2018, 16:09 by Amit Prajapati


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एक बालक था। नाम था उसका राम। उसके पिता बहुत बड़े पंडित थे। वह बहुत दिन जीवित नहीं रहे। उनके मरने के बाद राम की माँ अपने भाई के पास आकर रहने लगी। वह एकदम अनपढ़ थे। ऐसे ही पूजा-पाठ का ठोंग करके जीविका चलाते थे। वह झूठ बोलने से भी नहीं हिचकते थे। वे पेशवा के राज में रहते थे। पेशवा विद्वानों का आदर करते थे। उन्हें वे दक्षिणा देते थे। वे विद्यार्थी को भी दक्षिणा देते थे। वे चाहते थे कि उनके राज में शिक्षा का प्रसार हो।एक दिन बहुत से विद्वान पंडित और विद्यार्थी दक्षिणा लेने महल में पहुँचे। बड़े आदर से सूबेदार ने उन्हें बैठाया। उन्हीं में राम और उसके मामा भी थे। लेकिन वे तो एक अक्षर पढ़ सकते थे और लिख सकते थे। राम बार-बार धीरे-धीरे मामा से कहता, ''मामा ! मैं तो घर जा रहा हूँ ।'' मामा हर बार डाँट देते, ''चुप रह ! जब से आया है टर-टर किए जा रहा है।'' राम कहता, ''नहीं मामा। मैं यहाँ नहीं बैठूँगा। मैं कहाँ पढ़ता हूँ। मैं झूठ नहीं बोलूँगा।'' राम जब नहीं माना तो मामा ने किचकिचाकर कहा, ''चुप नहीं रहेगा। झूठ नहीं बोलूँगा। हूँ जैसे सच बोलने का ठेका तूने ही तो ले रखा है।  
  
 
 

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