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तीन तलाक-ए-विद्दत की विदाई (साँईराम कम्प्यूटर सेंटर देवरी)
created Dec 26th 2017, 12:58 by user1426656
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एक ही उच्चारण में तीन तलाक देने की मुस्लिम विधि में प्रचलित शदियों पुरानी प्रथा/चलन के संबंध में उच्चतम न्यायालय का निष्कर्ष अंतत: वैसा ही आया, जैसा कि व्यापक रूप में अनुमानित किया जा रहा था और जजमेंट एण्ड लॉ टुडे की ओर से भी जनवरी, 2017 अंक में निष्कर्षित किया गया था। शायरा बानों बनाम भारत संघ और अन्य रिट याचिका सिविल संख्या 188 वर्ष 2016, स्यंम उच्चतम न्यायालय की स्वप्रेरण रिट याचिका सिविल संख्या 2 वर्ष 2015, सहित आधा दर्जन याचिकाओं पर विचार करते हुए उच्चतम न्यायालय की पॉंच सदस्यीय संविधान ने गत 22 अगस्त, 2017 को 3:2 के बहुमत से अपने एक पंक्ति के प्रवर्तित आदेश में स्पष्टत: आदेशित किया है कि बहुमत के 3:2 मत के द्वारा दर्ज किए गए भिन्न-भिन्न रायों मतों के विचार में ‘तलाक-ए-विद्दत’ तीन तलाक के चलन को निरस्त अपास्त किया जाता है।
आदेश का अर्थ बिल्कुल स्पष्ट है और वह यह है कि लगभग 1400 वर्षों से मुस्लिम विधि में अनेक-किन्तु परन्तु के साथ प्रथा के रूप में चलन में रहे तीन तलाक के ‘तलाक एक विद्दत प्रथा’ की अब मुस्लिम व्यक्तिगत विधि से हमेशा के लिए विदाई हो चुकी है। निश्यच ही यह मुस्लिम माहिलाओं के विधिक और संविधानिक अधिकारों के संरक्षण में दिया गया एक ऐतिहासिक और क्रांतिकारी निर्णय है और इसे बिना किसी किन्तु-परन्तु के स्वीकार किया जाना चाहिए।
वस्तुत: पूरा निर्णय तीन भागों में बँटा हुआ है। पहला और मुख्य निर्णय जो कुल 201 पैरा और 272 पृष्ठ का है, जिसे स्वयं मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे.एस. खेहर ने लिखा है और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर ने समर्थन किया है, अल्पमत का निर्णय है। दूसरा मुख्य निर्णय न्यायमूर्तिगण उदय उमेश ललित और आर एफ नरीमन का है, जिनके मत का न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ ने अपने पृथक् निर्णय में समर्थन किया है। अत: यह बहुमत का निर्णय है। न्यायमूर्ति जे. एस. खेहर और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर का मत है कि ‘तलाक एक विद्दत’ तीन तलाक का मुद्दा मुस्लिम विधि के हनफी पंथ को माने वाले सुन्नी समुदाय के धर्म का अभिन्न अंग है। यह 1400 वर्षों से चली आ रही उनकी आस्था का विषय है जो उनके व्यक्तिगत विधि का अभिन्न अंग बन चुका है, जिसे कानून बनाकर ही समाप्त किया जा सकता है। अत: न्यायमूर्तिद्वय की पीठ ने अनुच्छेद 142 के अंतर्गत केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि वह तलाक एक विद्दत को समाप्त करने के लिए आवश्यक और समुचित विधायन का निर्माण करे, जिसमें शरियत के आवश्यक प्रावधानों एवं विश्व स्तरीय मुस्लिम कानून को भी विचार में लाया जाय। याचियों को उपचार के रूप में न्यायमूर्तिद्वय ने अपने निर्णय के अंतिम मुख्य पैरा 200 में केवल इतना कहा है कि जब तक विषय पर किसी विधायन पर विचार नहीं किया जाता हम मुस्लिम पतियों का ‘तला-ए-विद्दत’ का उच्चरण करने से रोकते हुए संतुष्ट हैं, उनके वैवाहिक जीवन का बनाये रखने के लिए साधन के रूप में यह रोक व्यादेश प्रथमत: 6 महीने तक के लिए प्रवृत रहेगी। व्यादेश आगे तक तक जारी रहेगा जब तक इस पर अंतिम विधायन नहीं हो जाता है। यदि विधायन में विफलता होती है, व्यादेश आगे प्रवृत नहीं रहेगी।
उपर्युक्त निष्कर्ष का सार संक्षेप यही माना जा सकता है, फरियादी जिस उम्मीद से न्यायालय के दरवाजे पर दस्तक दिए थे, उन पर पानी फिर गया और उन्हें भी उपचार नहीं मिला और फरियादी न्यायालय के पास नहीं अपितु सरकार के पास जायें। यह सच है कि न्यायतंत्र का यह सार्वभौमिक सिद्धान्त है कि प्रत्येक न्यायाधीश अपने समक्ष मामले में देश के विधि और संविधान के अनुसार निर्णय देने के लिए स्वतंत्र होता है। इसका निर्वाचन भी उसी के हाथ में हैं। किन्तु जहॉं विधि चुप हो अर्थात् जिस विषय पर विधि नहीं है या प्रवृत विधि व्यक्ति के मानव अधिकार का उल्लंघन करता हो वहॉं न्यायाधीश को अपने विवेक से निर्णय देना होता है। इन परिस्थितियों में संविधानिक व्यवस्था के तहत पांच, सात, नौ, तेरह न्यायाधीशों की विशेष संविधान पीठ भी इसीलिए गठित की जाती है कि जब विवेक का प्रयोग किया जाना हो, तब संदर्भित विषय पर एक मत नहीं हो बहुमत की राय जाना जा सके। इस प्रकरण में यही हुआ। तीन तलाक जैसे गंभीर, संवेदनशील और राष्ट्रीय महत्व के इस प्रश्न पर बहुमत की राय इसे समाप्त करने के पक्ष में रहा और मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे. एस. खेहर और न्यायमूर्ति एस. अब्दुल नजीर को अल्पमत के उपर्युक्त मत को रखते हुए भी इस मामले के एक पंक्ति के प्रवर्तनीय आदेश पर अपना हस्ताक्षर करते हुए इसकी घोषणा करना पड़ा।
न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ ने अपने मात्र 27 पृष्ठीय संक्षिप्त निर्णय में देश के सबसे बड़े प्रश्नों में एक इस तीन तलाक (तलाक-ए-विद्दत) को चालू रखने या समाप्त करने के प्रश्न पर एक ही पंक्ति का संक्षिप्त और सटीक उत्तर दिया है, जो बहुमत के निर्णय का एक हिस्सा बना है। न्यायमूर्ति कुरियन अपने निर्णय के प्रारंभ में ही कह दिया है कि यह प्रश्न अनुत्तरित नहीं है। शमीम आरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य के मामले में इस न्यायालय ने अभिनिश्चित किया है कि तीन तलाक को विधिक आदेश प्राप्त नहीं है, इसलिए अनुच्छेद 141 के शर्तों के अधीन ‘शमीम आरा’ का विधि वह विधि है जो भारत में लागू होने योग्य है। न्यायमूर्ति कुरियन ने ‘शरियत पर विद्वान लेखक फैजी के निष्कर्ष, मुस्लिम विधि के स्त्रोतों कुरान, हदीथ, इजमा और कयास की समीक्षा के बाद पाया कि पवित्र कुरान में जिस तीन तलाक की बात है, उसमें पक्षों के बीच में सुलह समझौते की गुजांइस रखी गई है। ताकि पक्ष अपनी भूल-चूक सुधार कर एक हो सकें, किन्तु ‘तलाक-ए-विद्दत’ जिसका उल्लेख कुरान में नहीं है और जो हदीथ इजमा और कयास के द्वारा स्थापित और विकसित है में ऐसी सुलह की कोई सम्भावना ही नहीं बचती है। इसलिए तलाक ए विद्दत पवित्र कुरानिक विधि के आशय के अनुरूप नहीं है। अत: यह शरियत का उल्लंघन करता है।
‘’रशीद अमद बनाम अनीशा खातून के मामले में प्रीवी काउंसिल का निर्धारण कि तीन तलाक (तलाक-ए-विद्दत) वैध है भले ही यह बिना युक्तियुक्त कारण के दिया गया हो शमीर आरा उपर्युक्त के निर्णय के बाद अब अच्छी विधि नहीं रह गया है। ऐसा होने के कारण, स्पष्ट है कि तलाक का यह प्रारूप इस भाव में मनमानापूर्ण है कि वैवाहिक बंधन को एक मुस्लिम पुरुष के द्वारा सनक और मनमौजी रूप से तोड़ा जा सकता है, उसे बचाने के लिए कोई प्रयास किए बिना। इसलिए, इस तरह के तलाक को भारत के संविधान अनुच्छेद 14 में अंतर्विष्ट मूल अधिकार का उल्लंघन करने वाला अभिनिश्चित किया जाना चाहिए। इसलिए हमारी राय में शरियत अधिनियम 1937 की धारा 2, जहॉं तक यह तीन तलाक को मान्यता देने और प्रवर्तित होने की अपेक्षा करता है, अनुच्छेद 13(1) के अंतर्गत अभिव्यक्ति ‘’प्रवृत्त विधि’’ के अंतर्गत आता है और उस विस्तार तक शून्य होते हुए निरस्त कर दिया जाना चाहिए जितने तक वह तीन तलाक को मान्यता देता है और प्रवर्तित करता है। चूँकि इससे पहले ही ऊपर सीमित आधारों पर शरियत अधिनियम, 1937 के धारा 2 को उक्त विस्तार तक, इसे मनमानापूर्ण होने के कारण हम शून्य पोषित कर चुके हैं, हमें इन मामालों में विभेद के आधार पर (बहस करने की आवश्यकता नहीं है।)
जहॉं तक शमीर आरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में विधि निर्धारण का प्रश्न है, न्यायालय ने तलाक संबंधी प्रचलित विधि और उस पर अब तक प्रमुख निर्णयों का अवलोकन करते हुए निम्न निर्धारण दिया था जो वास्तव में गौहाटी उच्च न्यायालय के रूकिया खातून के मामले में एक खंडपीठ के निर्णय का अनुसमर्थन था।
‘’पवित्र कुरान के द्वारा जैसा कि आदेशित है, तलाक की जो सही विधि है, वह यह है कि तलाक किसी युक्तियुक्त कारण के लिए हो और इसके पूर्व पति और पत्नी के बीच दो मध्यस्थों के द्वारा सुलह का प्रयास किया जाना चाहिए, जिनमें से एक पत्नी के परिवार का और दूसरा पति की ओर से हो यदि प्रयास विफल हो जाता है, तलाक प्रभावी हो सकता है।‘’
अब सार संक्षेप यही माना जा सकता है कि ‘तलाक-ए-विद्दत’ के रूप में तीन तलाक पवित्र कुरान के विधि पर आधारित नहीं है। इसलिए, इसे संविधानपीठ के 3:2 के बहुमत के राय में, मुस्लिम विधि में और शरियत अधिनियम, 1937 के धारा 2 के अंतर्गत की भ्ज्ञी कायम नहीं रखा जा सकता है। परिणामत: इसे मुस्लिम विधि के पन्नों से विदा कर दिया गया है। भले ही यह न्यायिक विनिश्चय के द्वारा संभव हो सका है, यह इसे मामले की पीडि़त याचिकाकर्ता महिलाओं के लिए मुख्य उपचार है तो देश भर के उन महिलाओं के लिए कवच है, जिन पर 24 घंटे तीन तलाक रूपी तलवार लटकी रहती थी। किन्तु देश के वर्तमान सामाजिक व्यवस्था एवं मुस्लिम परिवार के ताना-बाना तीन-तलाक को असंवैधानिक घोषित करने और इसे निरस्त कर देने से एक कमद आगे जाने की भी आवश्यकता है। अब छिपा नहींह ै कि एक तरफ तीन-तलाक को समाप्त करने का फैसला आया तो दूसरी तरफ तीन तलाक के कई नये मामले भी आए। प्रवृत्ति बिल्कुल साफ है कि शदियों से चले आ रहे इस कुप्रथा को मुस्लिम समुदाय के कुछ व्यक्ति व वर्ग इसे आसानी से नहीं छोड़ सकते हैं। अपितु इसे छुड़वाना पड़ेगा। यह तभी संभव हो सकेगा जब ऐसे प्रत्येक प्रयास पर अंकुश लगाया जाये। इसके लिए सर्वप्रथम तो स्वयं मुस्लिम धर्म गुरुओं, मौलवी और मुस्लिम विधि शास्त्रियों को आगे आना होगा। सामाजिक कल्याण और समाज सुधार के उद्देश्य से जिस कार्य का न्यायपालिका ने सूत्रपात किया है, उसका सम्मान करते हुए उन्हें आगे बढ़ाना चाहिए। यद्यपि अल्पमत की राय भी यहॉं कारगर साबित हो सकता है और विधि निर्माण कर तीन तलाक को हमेशा के लिए उन्मूलित किया जा सकता है किन्तु यह कार्य इतना आसान नहीं है, जितना कि समझा जा रहा है। ऐसी विकट घड़ी लगभग तीन दशक पूर्व मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम में 23 अप्रैल, 1985 को दिए गए निर्णय के समय भी आया था। तब मामला शरियत के अनुसार तलाक के बाद भरण पोषण (इद्दत काल तक) देने का था और तब तुष्टिकरण की नीति के तहत मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित करके मामला शांत कर दिया गया और इस अधिनियम के द्वारा न्यायालय के उस निर्णय को निष्प्रभावी बना दिया गया, जिसमें संविधान पीठ ने निर्णय दिया था कि मुस्लिम महिला को केवल इद्दत काल तक ही नहीं अपितु आजीवन भरण-पोषण दिया जाना चाहिए। और वह दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत भी भरण पोषण का दावा कर सकती है। इसमें मामला पूर्णतया आर्थिक (भरण-पोषण) था और पीडि़ता के सिकी मूल अधिकार के हनन का प्रश्न नहीं उठाया गया था। शायरा बानों का यह मामला शाहबानों प्रकरण से कहीं अधिक व्यापक, गंभीर और संवेदनशील था और है, जिस पर दिए गए इस निर्णय का व्यापक पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय महत्व है। अत: न्यायालय के निर्णय का व्यापक पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय महत्व है। अत: न्यायालय के निर्णय का सम्मान और उसका अनुपालन सुनिश्चित कराने के लिए जो भी कदम आवश्यक पड़े उसे उठाया ही जाना चाहिए भले ही इसका अंतिम विकल्प विधि निर्माण हो। यह समय की मांग भी है और आवश्यकता भी।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि पड़ोसी देश पाकिस्तान और बंग्लादेश सहित विश्व के अनेक मुस्लिम राष्ट्र अपने कानून के पन्नों से ‘तलाक-ए-विद्दत’ जैसी कुप्रथा को दशकों पहले अलविदा कह चुके हैं। फिर भारत जैसे पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश में इसे जारी रखने का क्या औचित्य है। अनुमति नहीं देता है कि कोई व्यक्ति अपने पारिवारिक सदस्य जो कर्तव्यनिष्ठ और अपने संबंधों के प्रति ईमानदार है, को बेसहारा सड़क पर छोड़ दें, एक पत्नी को तो कदापि नहीं।
देवेन्द्र प्रजापति
आदेश का अर्थ बिल्कुल स्पष्ट है और वह यह है कि लगभग 1400 वर्षों से मुस्लिम विधि में अनेक-किन्तु परन्तु के साथ प्रथा के रूप में चलन में रहे तीन तलाक के ‘तलाक एक विद्दत प्रथा’ की अब मुस्लिम व्यक्तिगत विधि से हमेशा के लिए विदाई हो चुकी है। निश्यच ही यह मुस्लिम माहिलाओं के विधिक और संविधानिक अधिकारों के संरक्षण में दिया गया एक ऐतिहासिक और क्रांतिकारी निर्णय है और इसे बिना किसी किन्तु-परन्तु के स्वीकार किया जाना चाहिए।
वस्तुत: पूरा निर्णय तीन भागों में बँटा हुआ है। पहला और मुख्य निर्णय जो कुल 201 पैरा और 272 पृष्ठ का है, जिसे स्वयं मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे.एस. खेहर ने लिखा है और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर ने समर्थन किया है, अल्पमत का निर्णय है। दूसरा मुख्य निर्णय न्यायमूर्तिगण उदय उमेश ललित और आर एफ नरीमन का है, जिनके मत का न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ ने अपने पृथक् निर्णय में समर्थन किया है। अत: यह बहुमत का निर्णय है। न्यायमूर्ति जे. एस. खेहर और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर का मत है कि ‘तलाक एक विद्दत’ तीन तलाक का मुद्दा मुस्लिम विधि के हनफी पंथ को माने वाले सुन्नी समुदाय के धर्म का अभिन्न अंग है। यह 1400 वर्षों से चली आ रही उनकी आस्था का विषय है जो उनके व्यक्तिगत विधि का अभिन्न अंग बन चुका है, जिसे कानून बनाकर ही समाप्त किया जा सकता है। अत: न्यायमूर्तिद्वय की पीठ ने अनुच्छेद 142 के अंतर्गत केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि वह तलाक एक विद्दत को समाप्त करने के लिए आवश्यक और समुचित विधायन का निर्माण करे, जिसमें शरियत के आवश्यक प्रावधानों एवं विश्व स्तरीय मुस्लिम कानून को भी विचार में लाया जाय। याचियों को उपचार के रूप में न्यायमूर्तिद्वय ने अपने निर्णय के अंतिम मुख्य पैरा 200 में केवल इतना कहा है कि जब तक विषय पर किसी विधायन पर विचार नहीं किया जाता हम मुस्लिम पतियों का ‘तला-ए-विद्दत’ का उच्चरण करने से रोकते हुए संतुष्ट हैं, उनके वैवाहिक जीवन का बनाये रखने के लिए साधन के रूप में यह रोक व्यादेश प्रथमत: 6 महीने तक के लिए प्रवृत रहेगी। व्यादेश आगे तक तक जारी रहेगा जब तक इस पर अंतिम विधायन नहीं हो जाता है। यदि विधायन में विफलता होती है, व्यादेश आगे प्रवृत नहीं रहेगी।
उपर्युक्त निष्कर्ष का सार संक्षेप यही माना जा सकता है, फरियादी जिस उम्मीद से न्यायालय के दरवाजे पर दस्तक दिए थे, उन पर पानी फिर गया और उन्हें भी उपचार नहीं मिला और फरियादी न्यायालय के पास नहीं अपितु सरकार के पास जायें। यह सच है कि न्यायतंत्र का यह सार्वभौमिक सिद्धान्त है कि प्रत्येक न्यायाधीश अपने समक्ष मामले में देश के विधि और संविधान के अनुसार निर्णय देने के लिए स्वतंत्र होता है। इसका निर्वाचन भी उसी के हाथ में हैं। किन्तु जहॉं विधि चुप हो अर्थात् जिस विषय पर विधि नहीं है या प्रवृत विधि व्यक्ति के मानव अधिकार का उल्लंघन करता हो वहॉं न्यायाधीश को अपने विवेक से निर्णय देना होता है। इन परिस्थितियों में संविधानिक व्यवस्था के तहत पांच, सात, नौ, तेरह न्यायाधीशों की विशेष संविधान पीठ भी इसीलिए गठित की जाती है कि जब विवेक का प्रयोग किया जाना हो, तब संदर्भित विषय पर एक मत नहीं हो बहुमत की राय जाना जा सके। इस प्रकरण में यही हुआ। तीन तलाक जैसे गंभीर, संवेदनशील और राष्ट्रीय महत्व के इस प्रश्न पर बहुमत की राय इसे समाप्त करने के पक्ष में रहा और मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे. एस. खेहर और न्यायमूर्ति एस. अब्दुल नजीर को अल्पमत के उपर्युक्त मत को रखते हुए भी इस मामले के एक पंक्ति के प्रवर्तनीय आदेश पर अपना हस्ताक्षर करते हुए इसकी घोषणा करना पड़ा।
न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ ने अपने मात्र 27 पृष्ठीय संक्षिप्त निर्णय में देश के सबसे बड़े प्रश्नों में एक इस तीन तलाक (तलाक-ए-विद्दत) को चालू रखने या समाप्त करने के प्रश्न पर एक ही पंक्ति का संक्षिप्त और सटीक उत्तर दिया है, जो बहुमत के निर्णय का एक हिस्सा बना है। न्यायमूर्ति कुरियन अपने निर्णय के प्रारंभ में ही कह दिया है कि यह प्रश्न अनुत्तरित नहीं है। शमीम आरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य के मामले में इस न्यायालय ने अभिनिश्चित किया है कि तीन तलाक को विधिक आदेश प्राप्त नहीं है, इसलिए अनुच्छेद 141 के शर्तों के अधीन ‘शमीम आरा’ का विधि वह विधि है जो भारत में लागू होने योग्य है। न्यायमूर्ति कुरियन ने ‘शरियत पर विद्वान लेखक फैजी के निष्कर्ष, मुस्लिम विधि के स्त्रोतों कुरान, हदीथ, इजमा और कयास की समीक्षा के बाद पाया कि पवित्र कुरान में जिस तीन तलाक की बात है, उसमें पक्षों के बीच में सुलह समझौते की गुजांइस रखी गई है। ताकि पक्ष अपनी भूल-चूक सुधार कर एक हो सकें, किन्तु ‘तलाक-ए-विद्दत’ जिसका उल्लेख कुरान में नहीं है और जो हदीथ इजमा और कयास के द्वारा स्थापित और विकसित है में ऐसी सुलह की कोई सम्भावना ही नहीं बचती है। इसलिए तलाक ए विद्दत पवित्र कुरानिक विधि के आशय के अनुरूप नहीं है। अत: यह शरियत का उल्लंघन करता है।
‘’रशीद अमद बनाम अनीशा खातून के मामले में प्रीवी काउंसिल का निर्धारण कि तीन तलाक (तलाक-ए-विद्दत) वैध है भले ही यह बिना युक्तियुक्त कारण के दिया गया हो शमीर आरा उपर्युक्त के निर्णय के बाद अब अच्छी विधि नहीं रह गया है। ऐसा होने के कारण, स्पष्ट है कि तलाक का यह प्रारूप इस भाव में मनमानापूर्ण है कि वैवाहिक बंधन को एक मुस्लिम पुरुष के द्वारा सनक और मनमौजी रूप से तोड़ा जा सकता है, उसे बचाने के लिए कोई प्रयास किए बिना। इसलिए, इस तरह के तलाक को भारत के संविधान अनुच्छेद 14 में अंतर्विष्ट मूल अधिकार का उल्लंघन करने वाला अभिनिश्चित किया जाना चाहिए। इसलिए हमारी राय में शरियत अधिनियम 1937 की धारा 2, जहॉं तक यह तीन तलाक को मान्यता देने और प्रवर्तित होने की अपेक्षा करता है, अनुच्छेद 13(1) के अंतर्गत अभिव्यक्ति ‘’प्रवृत्त विधि’’ के अंतर्गत आता है और उस विस्तार तक शून्य होते हुए निरस्त कर दिया जाना चाहिए जितने तक वह तीन तलाक को मान्यता देता है और प्रवर्तित करता है। चूँकि इससे पहले ही ऊपर सीमित आधारों पर शरियत अधिनियम, 1937 के धारा 2 को उक्त विस्तार तक, इसे मनमानापूर्ण होने के कारण हम शून्य पोषित कर चुके हैं, हमें इन मामालों में विभेद के आधार पर (बहस करने की आवश्यकता नहीं है।)
जहॉं तक शमीर आरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में विधि निर्धारण का प्रश्न है, न्यायालय ने तलाक संबंधी प्रचलित विधि और उस पर अब तक प्रमुख निर्णयों का अवलोकन करते हुए निम्न निर्धारण दिया था जो वास्तव में गौहाटी उच्च न्यायालय के रूकिया खातून के मामले में एक खंडपीठ के निर्णय का अनुसमर्थन था।
‘’पवित्र कुरान के द्वारा जैसा कि आदेशित है, तलाक की जो सही विधि है, वह यह है कि तलाक किसी युक्तियुक्त कारण के लिए हो और इसके पूर्व पति और पत्नी के बीच दो मध्यस्थों के द्वारा सुलह का प्रयास किया जाना चाहिए, जिनमें से एक पत्नी के परिवार का और दूसरा पति की ओर से हो यदि प्रयास विफल हो जाता है, तलाक प्रभावी हो सकता है।‘’
अब सार संक्षेप यही माना जा सकता है कि ‘तलाक-ए-विद्दत’ के रूप में तीन तलाक पवित्र कुरान के विधि पर आधारित नहीं है। इसलिए, इसे संविधानपीठ के 3:2 के बहुमत के राय में, मुस्लिम विधि में और शरियत अधिनियम, 1937 के धारा 2 के अंतर्गत की भ्ज्ञी कायम नहीं रखा जा सकता है। परिणामत: इसे मुस्लिम विधि के पन्नों से विदा कर दिया गया है। भले ही यह न्यायिक विनिश्चय के द्वारा संभव हो सका है, यह इसे मामले की पीडि़त याचिकाकर्ता महिलाओं के लिए मुख्य उपचार है तो देश भर के उन महिलाओं के लिए कवच है, जिन पर 24 घंटे तीन तलाक रूपी तलवार लटकी रहती थी। किन्तु देश के वर्तमान सामाजिक व्यवस्था एवं मुस्लिम परिवार के ताना-बाना तीन-तलाक को असंवैधानिक घोषित करने और इसे निरस्त कर देने से एक कमद आगे जाने की भी आवश्यकता है। अब छिपा नहींह ै कि एक तरफ तीन-तलाक को समाप्त करने का फैसला आया तो दूसरी तरफ तीन तलाक के कई नये मामले भी आए। प्रवृत्ति बिल्कुल साफ है कि शदियों से चले आ रहे इस कुप्रथा को मुस्लिम समुदाय के कुछ व्यक्ति व वर्ग इसे आसानी से नहीं छोड़ सकते हैं। अपितु इसे छुड़वाना पड़ेगा। यह तभी संभव हो सकेगा जब ऐसे प्रत्येक प्रयास पर अंकुश लगाया जाये। इसके लिए सर्वप्रथम तो स्वयं मुस्लिम धर्म गुरुओं, मौलवी और मुस्लिम विधि शास्त्रियों को आगे आना होगा। सामाजिक कल्याण और समाज सुधार के उद्देश्य से जिस कार्य का न्यायपालिका ने सूत्रपात किया है, उसका सम्मान करते हुए उन्हें आगे बढ़ाना चाहिए। यद्यपि अल्पमत की राय भी यहॉं कारगर साबित हो सकता है और विधि निर्माण कर तीन तलाक को हमेशा के लिए उन्मूलित किया जा सकता है किन्तु यह कार्य इतना आसान नहीं है, जितना कि समझा जा रहा है। ऐसी विकट घड़ी लगभग तीन दशक पूर्व मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम में 23 अप्रैल, 1985 को दिए गए निर्णय के समय भी आया था। तब मामला शरियत के अनुसार तलाक के बाद भरण पोषण (इद्दत काल तक) देने का था और तब तुष्टिकरण की नीति के तहत मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित करके मामला शांत कर दिया गया और इस अधिनियम के द्वारा न्यायालय के उस निर्णय को निष्प्रभावी बना दिया गया, जिसमें संविधान पीठ ने निर्णय दिया था कि मुस्लिम महिला को केवल इद्दत काल तक ही नहीं अपितु आजीवन भरण-पोषण दिया जाना चाहिए। और वह दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत भी भरण पोषण का दावा कर सकती है। इसमें मामला पूर्णतया आर्थिक (भरण-पोषण) था और पीडि़ता के सिकी मूल अधिकार के हनन का प्रश्न नहीं उठाया गया था। शायरा बानों का यह मामला शाहबानों प्रकरण से कहीं अधिक व्यापक, गंभीर और संवेदनशील था और है, जिस पर दिए गए इस निर्णय का व्यापक पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय महत्व है। अत: न्यायालय के निर्णय का व्यापक पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय महत्व है। अत: न्यायालय के निर्णय का सम्मान और उसका अनुपालन सुनिश्चित कराने के लिए जो भी कदम आवश्यक पड़े उसे उठाया ही जाना चाहिए भले ही इसका अंतिम विकल्प विधि निर्माण हो। यह समय की मांग भी है और आवश्यकता भी।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि पड़ोसी देश पाकिस्तान और बंग्लादेश सहित विश्व के अनेक मुस्लिम राष्ट्र अपने कानून के पन्नों से ‘तलाक-ए-विद्दत’ जैसी कुप्रथा को दशकों पहले अलविदा कह चुके हैं। फिर भारत जैसे पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश में इसे जारी रखने का क्या औचित्य है। अनुमति नहीं देता है कि कोई व्यक्ति अपने पारिवारिक सदस्य जो कर्तव्यनिष्ठ और अपने संबंधों के प्रति ईमानदार है, को बेसहारा सड़क पर छोड़ दें, एक पत्नी को तो कदापि नहीं।
देवेन्द्र प्रजापति
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