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BUDDHA ACADEMY CPCT PAPER 20 MAY SHIFT-1 BHANU
created May 24th 2017, 06:07 by BhanuPratapSen
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इतिहास गवाह है कि विश्व के वही देश संपन्न हो पाए हैं जिनके नागरिकों ने राष्ट्र धर्म को अपन व्यक्तिगत हितों व मतांतरों से सर्वोपरि रखा। आज मनुष्य भले ही आदिम युग से निकल कर आधुनिक युग में आ चुका है लेकिन अपनी आदिमकालिन से चली आ रही बुरी आदतों को नहीं छोड़ पाया है। इन आदतों ने कालांतर में और भी विकराल रूप धारण कर लिया है। मनुष्य ने अपने उन्नत, ज्ञान व तकनीक का उपयोग रचनात्मक कामों में कम एवं विध्वंसनात्मक कामों में अधिक किया है। आज जो भी आदमी समाज का अगुता बनता है उसकी प्राथमिकता स्वहित, स्वपरिवार हित के दायरे से आगे नहीं बढ़ पाती। यह ही नहीं, अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए ऐसे अगुवा देश को क्षेत्रवाद, अलगाववाद और भाषावाद के दावानल में झोंक देते हैं। आज ऐसी ही कई समस्याओं के कारण दिनोंदिन नए राज्यों के गठन के लिए मांग उठती हैं जो कि हिंसक आंदोलनो का रूप लेती जा रही है। देश का कोई कोना ऐसा नहीं है जहां इस तरह की मांग नहीं उठ रही हो। लेकिन इसमें सबसे दिलचस्प बात यही है कि इन आंदोलनों से समाज के आम आदमी का कोई सरोकार नही क्योंकि वह बेहतर तरीके से इनके परिणामों से वाकिफ है। संविधान में एकली नागरिकता, एकल नयायपालिका, शक्तिशाली केन्द्र एवं अखिल भारतीय सेवा की व्यवस्था की गई है ताकि क्षेत्रवाद या उन्नत रूप में राज्यवाउद का ज्वार न फूटे। लेकिन स्थानीय नेताओं की स्वार्थपरक राजनीति ने राज्यवाद को बढ़ावा दिया है। अखिल भारतीय सेवा का अधिकारी जिला स्तर के विकास एवं केन्द्र तथा राज्य प्रशासन की विकासपरक नीतियों को लागू करवाने के लिए जिम्मेदार होता है। पंचायतीराज की संकल्पना इस देश की सबसे दूरस्थ इकाई गावों के विकास के लिए बनाई गई है। ऐसे में जब संवैधानिक ढ़ाचे की पहुंच निचले स्तर तक है तो फिर विकास क्यों नही होता। कहा जाता है कि छोटे राज्य ही विकास का आधुनिक प्रतिमान हैं तो पूर्वोत्तर के उन छोटे और मझौंले राज्यों के विकास के बारे में कोई नहीं सोचता। यह तब है जब उनके पास प्राकृतिक संसाधनों की कोई कमी भी नहीं। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण नए गठित राज्य हैं जो स्वयं अपनी कहानी बयान कर रहे है तथा जिन राज्यों से इन्हें अलग किया गया उनकी भी स्थिति बद से बदतर हो गयी। आज नए राज्यों के बनने के पक्ष में पूर्व में बने कुछ राज्यों की बढ हुई जी.डी.पी. यानि सकल घरेलू उत्पाद का हवाला दिया जा रहा है। पर वास्तविकता देखी जाए तो यह केवल अर्थशास्त्रियों के कागजों का गणित मात्र है। विकास संयुक्तता में है और यदि बंटवारे का ही नाम विकास है तो वह दिन दूर नहीं जब बंटवारे के लिए कुछ नहीं बचेगा और विकास शब्द स्वयं अपनी सार्थकता खोज रहा होगा।
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