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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नां. 9098909565
created May 9th 2022, 03:01 by lucky shrivatri
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हाल ही में मुख्यमंत्रियों के संयुक्त सम्मेलन में सबको न्याय सुलभ कराने के लिए एक रोडमेप प्रस्तुत किया गया। इस अवसर पर प्रधान न्यायाधीश एन.वी. रमना ने सबको न्याय के लक्ष्य को पूरा करने के लिए विजन दस्तावेज जारी किया। अपने उद्बोधन में प्रधान न्यायधीश ने उन कारणों को भी रेखाकिंत किया, जिनकी वजह से मुकदमों का अंबार लगता जा रहा है। विजन दस्तावेज में न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने, ढ़ांचागत सुविधाओं को मजबूत करने के अलावा कानूनी सहायता जैसे कार्यक्रमों के क्रियान्वयन की चरणबद्ध योजना है। प्रधान न्यायधीश ने कार्यपालिका और विधायिका से आग्रह किया है वे अनिर्णय की स्थिति से बाहर निकलें तथा लोगों की शिकायतों का निराकरण करें, ताकि उन्हें अदालतों की शरण न लेनी पड़ी। उनकी शिकायत थी कि कार्यपालिका और विधायिका अपने दायित्वों का सम्यक निर्वहन नहीं कर रही है। विधायिका कानून बनाते समय पर्याप्त पर्याप्त सतर्कता नहीं बरतती और कार्यपालिका भी अपने हिस्से का निर्णय समय से नहीं लेती। इसके कारण मुकदमें बढ़ते हैं। अदालतों के सामने लम्बित मुकदमों में से करीब 55 प्रतिशत मामले ऐसे हैं, जिनमें सरकार एक पक्षकार के रूप में लड़ रही है। ऐसे मुकदमों की संख्या भी अच्छी खासी है, जिनमें सरकार के दो विभाग आपस में ही मुकदमेबाजी कर रहे हैं। राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार के बीच भी अक्सर विवाद होते रहते हैं। यदि सरकार अन्तरराज्यीय समन्वय समितियां बनाकर इस तरह के विवादों को निपटा लें, तो मुकदमों के बोझ को कम किया जा सकता है। देश की अदालतों में लम्बित मुकदमों की सांख्यिकी एक भयावह तस्वीय पेश करती हैं। मोटे अनुमान के मुताबिक देश में इस समय कुल चार करोड़ सत्तर लाख से ज्यादा मुकदमें लम्बित है। उच्च न्यायालयों में लम्बित मुकदमों में से 21 प्रतिशत पिछले इस वर्षो से अधिक न्याय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। तकरीबन एक प्रतिशत मामले तो पिछले तीस वर्षों से लम्बित हैं। जिला अदालतों की स्थिति भी इससे अलग नहीं है। वहां इस समय करीब 45 प्रतिशत मामले पांच वर्षों से लम्बित हैं। जिला अदालतों में लम्बित मुकदमों के निस्तारण में तेजी लाने के लिए फास्ट ट्रैक अदालतों का गठन किया गया था। शुरू में इसका असर हुआ था, किन्तु करीब डेढ़ दशक बाद, वहां पर भी लम्बित मुकदमों की संख्या बढ़कर नौ लाख से ज्यादा पहुंच गई है। उच्च न्यायालयों में लम्बित मुकदमों में से 72 प्रतिशत मुकदमें दीवानी प्रकृति के हैं, जबकि जिला अदालतों में चल रहे कुल मुकदमों में से 73 प्रतिशत फौजदारी मामले हैं। इसका सबसे बड़ा खामियाजा विचाराधीन कैदियों को भुगतना पड़ता है। उनमें से भी गरीब अभियुक्तों को इसका सबसे ज्यादा दंश झेलना पड़ता है। इन लंबित वादों का प्रभाव यह है कि देशभर की जेलों में बंद लोगों में से 75 प्रतिशत विचाराधीन कैदी है। किसी भी देश की न्यायिक व्यवस्था और सरकार के लिए यह स्थिति अच्छी नहीं है।
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