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UPSI, UPASI, LEKHA TYPING CONTENT BY AJIT KUMAR VERMA SIR
created Jan 23rd 2022, 03:33 by New Era By Aj
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आजाद हिंद फौज की रचना जैसे उनके कार्यों को हम इतिहास की एक घटना की तरह देख कर आंख मूंद लेते हैं। उनके शब्दों को जीवन प्रकाश की ओर से देखना शायद हमारी उनके प्रति पहली विनम्रता होगी। सुभाष बाबू को देश यदि कृतज्ञ भाव से याद करता है, तो फिर क्या हमें उनके विचारों को युगीन युवाओं में पल्लवित होते नहीं देखना चाहिए? यदि नहीं देख पा रहे, तो फिर हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि उनके विचार अब हमारे सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों के लिए अर्थहीन हो गए हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उनका एक आदर्श वाक्य यह भी था कि कोई विचार किसी व्यक्ति की मृत्यु के साथ मृत हो सकता है, लेकिन फिर वही विचार हजारों व्यक्तियों में फिर से पल्लवित हो सकता है और होता देखा गया है। उनके शब्दों की यह आंच आज उस स्मृति के पीछे कहीं निस्तेज पड़ती गई है, जो उनके करिश्माई व्यक्तित्व और 1945 में अचानक उनके अप्रकट हो जाने से भारतीय अवचेतन में रच-बस गई है। देश के बहुसंख्य आवेग ने तो उस अप्रकट सुभाष को फिर से पाना चाहा है और उनकी ओजप्रवण जीवन शैली का प्रशंसक बना रहना चाहा है, लेकिन उनके प्रति बनी यह स्मृति और विस्तृत होकर उनके जीवन मूल्यों को समय के इस नए भारतीय दृश्य में देखना और उनका अध्ययन करना क्यों नहीं चाहती? हम इतने अविनम्र कैसे होते गए हैं कि हमें एक अविवेकी समाज तो अनासक्त भाव से स्वीकार है, लेकिन आजादी के युगपुरुषों को अपनी प्रशंसित स्मृति में सीमित न कर उनके राजनीतिक मूल्यों को प्रासंगिक शक्ति बना पाने में हम सक्षम महसूस नहीं करते। जिस राजनीतिक अवमूल्यन और सामाजिक अवक्षय से हम व्यापक रूप से रोज आहत दिखते हैं, उसके निर्णायक समाधान में आंच भरने हम सुभाष बाबू की ओर नहीं देखते। गांधी और विवेकानंद की ओर नहीं देखते। आजादी के बाद बहुत दिनों तक भारतीय जेहन में सुभाष की आंच का मूल्यबोध चहलकदमी करता था। 1950 में बनी फिल्म समाधि के प्रथम दृश्य मे सुभाष चंद्र बोस को मंच से जनता को संबोधित करते दिखाया जाता है, जहां वह कह रहे कि यदि आप मुझे मानते हैं, तो मेरे गले के इस हार की कीमत के लिए बोली लगाइए। जो भी पैसा इकट्ठा होगा वह आजादी की लड़ाई में इस्तेमाल होगा। फिल्म में जापान की भूमिका भी प्रमुख है। सुभाष की भूमिका निभा रहे कलाकार के अलावा इस फिल्म में अशोक कुमार और नलिनी जयवंत मुख्य भूमिकाओं में थे। इस फिल्म का यहां प्रतिनिधि उल्लेख इसलिए है कि स्पष्ट हो सके कि आजादी मिलने के बाद हम लंबे समय तक किस तरह सुभाष बाबू को मिस करते रहे हैं। यह मिस करना उनके उस व्यक्तित्व के कारण है, जो कुछ ऐसे आदर्श मूल्यों से समृद्ध हुआ था, जो असामान्य हैं, जिन्हें हमें जानना चाहिए और यह देखना चाहिए कि क्या ऐसी कालातीत जीवन शैली का कोई वृहत्तर अर्थ नहीं है, जिसके बूते हम आज की मूर्ख वर्जनाओं को विपन्न करना सीखें। यदि हम ऐसा नहीं कर सकते या नहीं कर रहे तो भारतीय राजनीतिक जीवन के प्रथम पुरुषों की जयंती भर मना लेना उन्हीं आडंबरों में से एक है, जो हममें अंधत्व का अंधेरा भरते हैं।
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