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created Dec 6th 2021, 01:53 by neetu bhannare
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संसद की लोक लेखा समिति के सौ वर्ष पूरे होने के अवसर पर उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने विकास के बजाय मुफ्त में दान देने वाली घोषणाओं पर व्यापक बहस की जो आवश्यकता जताई, उसकी पूर्ति होनी ही चाहिए। इस मुद्दे पर बहस की जरूरत इसलिए बढ़ गई है, क्योंकि राजनीतिक दलों की ओर से लोक लुभावन घोषणाएं करने का सिलसिला बेलगाम होता जा रहा है। समस्या इसलिए और बढ़ गई है, क्योंकि जनकल्याण के नाम पर ऐसी-ऐसी लोक लुभावन घोषणाएं कर दी जाती हैं, जो अंतत: जनहित के लक्ष्य पर ही भारी पड़ती हैं। एक समय लोक लुभावन घोषणाओं के जरिये लोगों को नाना प्रकार की मुफ्त वस्तुएं देने का जो सिलसिला तमिलनाडु से शुरू हुआ था, वह अब सारे देश में कायम हो गया है। तमिलनाडु के जो दल पहले साडि़यां, बल्ब आदि मुफ्त में देने के वादे करते थे, वे अब रंगीन टीवी, वाशिंग मशीन देने तक पहुंच गए हैं। इस लोक लुभावन राजनीति को अब देश के दूसरे हिस्से के दलों ने भी अपना लिया है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से यह कहा था कि वह राजनीतिक दलों की ओर से की जाने वाली लोक लुभावन घोषणाओं के मामले में दिशानिर्देश जारी करे, लेकिन इस दिशा में कुछ ठोस नहीं हो सका है। परिणाम यह है कि चुनाव आते ही राजनीतिक दल लोक लुभावन घोषणाओं की झड़ी लगा देते हैं। मुफ्त चावल, गेहूं से लेकर बिजली, पानी के साथ-साथ मोबाइल, लैपटाप आदि मुफ्त में देने की घोषणाएं आम हो गई हैं। अब तो नकदी देने के भी वादे किए जाने लगे हैं। हालांकि इस तरह की घोषणाएं करने वाले दल कई बार सत्ता में आने के बाद उन्हें पूरा भी नहीं कर पाते और अर्थव्यवस्था को गंभीर क्षति भी पहुंचाते हैं, लेकिन इसके बाद भी यह सिलसिला थम नहीं रहा है। यह और कुछ नहीं, एक तरह से जनता से की जाने वाली धोखाधड़ी ही है। इससे भी खराब बात यह है कि इससे अर्थव्यवस्था का बेड़ा गर्क होता है और विकास के जरूरी कामों को आगे बढ़ाने में भी समस्या आती है। यदि राजनीतिक दलों को आर्थिक नियमों की अनदेखी कर चुनाव लड़ने की सुविधा दी जाती रहेगी तो इससे न तो जनता का भला होने वाला है और न ही देश का। अगर लोक लुभावन घोषणाएं कर चुनाव जीतने की प्रवृत्ति पर लगाम नहीं लगी तो फिर विकास की दीर्घकालिक योजनाओं के लिए कोई स्थान ही नहीं बचेगा। चूंकि अनाप-शनाप वादे कर चुनाव जीतने की प्रवृत्ति लोकतंत्र को भी क्षति पहुंचाती है, इसलिए इस पर रोक लगनी ही चाहिए। इसके लिए चुनाव आयोग को भी सजग होना होगा और खुद राजनीतिक दलों को भी।
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