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CPCT Hindi Typing Test oct 2021 shift 1 बाइनरी कम्प्यूटर अकेडमी डबरा 7509880988
created Nov 26th 2021, 09:31 by RKShakya
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कर्मफल की सुव्यवस्था में किसी बाहरी नियन्त्रण की आवश्यकता नहीं होती, यह सब कुछ स्वसंचालित प्रक्रिया के आधार पर अनायास ही सम्पन्न होता रहता है। अनाचार का आरम्भ विकृत विचारों से होता है। मनोविकारो का चेतना क्षेत्र से विग्रह उत्पन्न दुविधा अभारना सर्वविदित है। इससे दुरावजन्य ग्रन्थियां बनती हैं। भय, लज्जा, संकोच भावना शरीर और मन के मध्य चल रहे व्यवस्था तन्त्र को अस्तव्यस्त कर देती है। फलत: चित्र विचित्र प्रकार के शरीर एवं मन के रोग असन्तुलन उत्पन्न करते हैं। इन आधिव्याधियों के फलस्वरूप व्यक्तित्व विकृत हो जाता है। न चिन्तन सही रह पाता है न व्यवहार की शालीनता स्थिर रहती है। फलत: अविश्वास और असन्तोष का वातावरण भीतर भी दिखता है और बाहर भी। यह दशा में मनुष्य के ऊपर द:ख दारिद्रय ही लदेंगे। मनोविारों की इस परिणति का मन:शास्त्र पूरी तरह समर्थन करता है और अनेकानेक प्रमाणों से साबित करता है कि सरल, सात्विक, सौम्य, सदाचारी चिन्तन चरित्र के सहारे ही व्यक्तित्व सुसंयत बना रह सकता है। उसे अपनाने में ही भलाई है। जो अनीति की राह पर चलेंगे वे अपनी दुर्दशा स्वयं करेंगे। कर्मफल के दण्ड पुरस्कार का शासन तन्त्र में पुरा विधान है। समाज में भी निन्दा, प्रशंसा, सहयोग असहयोग का दौर इसी आधार पर चलता है। प्रमाणिको का समर्थन मिलता है और वे उन्नति करते हैं जबकि अनाचारी अप्रमाणिक व्यक्ति तिरस्कार के भोजन बनते और असहयो, प्रतिरोध के कारण गई गुजरी स्थिति मे दिन गुजारते है। जिसका अहित किया है उसकी ओर से प्रतिशोध लिये जाने की सम्भावना भी बनी रहती है। इस समूची व्यवस्था पर दृष्टिपात करने से साबित होता है कि कर्मफल की सुव्यवस्था प्रकृति की कार्यप्रणाली का एक सुनिश्चित अंग है। व्यक्तियों की तरह भलेबुरे वातावरण का भी प्रभाव होता है। जिस प्रकार गंदगी के ढेर से किसी क्षेत्र का वायुमण्डल दुर्गन्धित विषाक्त हो जाता है और वहां हैजा जैसी छूत की बीमारियों का दौर चल निकलता है, उसी प्रकार व्यापक वातावरण की भी वैसी ही स्थिति होती है। जिन दिनों सज्जनता, सहकारी शालीनता का प्रचलन होता है उन दिनों व्यापक वातावरण भी सर्वसाधारण के लिए सुखशान्ति से भरा रहता है। प्रकृति अनुकूल रहती है और धन धान्य, वर्षा, ऋतु प्रभाव आदि में किसी प्रकार का व्यक्तिक्रम नहीं होने देती। सतयुग में सज्जनता का बाहुल्य था तब वृक्ष फलों से, खेत फसलों से, बादल विद्युत जल से भरे रहते थे और किसी को किसी प्रकार का अभाव या कष्ट अनुभव नहीं होने देते थे। न अकाल मृत्यु होती थी और न ही रोग, शोक, विग्रह जैसी विपत्तियां ही दृष्टिगोचर होती थीं। पारस्परिक स्नेह सहयोग इस सृष्टि का स्वभाविक क्रम है इसी आधार पर सारी विश्व व्यवस्था सुनियोजित ढंग से चल रही है। इसमें जहां भी व्यक्तिक्रम होता है वहीं सन्तुलन डगमगाता और व्यवस्था बिगड़ने पर विग्रह उत्पन्न होते हैं। इस दृष्टि से शरीर चक्र, जलचक्र, वनस्पति चक्र, दृष्टव्य हैं। हाथ कमाता है। उस कमाई को भोजन रूप में मुंह को देता है। मुंह चबाने का श्रम जोड़कर उसे पेट के सुपुर्द करता है। पेट उसमें अपने पाचक रस मिलाकर आंतों की और धकेलता है, वहां से वह उपार्जन, हृदय में रक्त बनकर पहुंचाता है। इस प्रकार यह प्रकृति की संतुलनकारी व्यवस्था बनी रहती है।
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