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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा (म0प्र0) सीपीसीटी न्यू बैच प्रारंभ संचालक- लकी श्रीवात्री मो. नं. 9098909565
created Nov 26th 2021, 06:29 by lovelesh shrivatri
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एक और मुठभेड़ को लेकर पुलिस की कार्यप्रणाली सवालों के घेरे में है। गाजियाबाद में 11 नवंबर को लोनी बॉर्डर पर कथित गो तस्करों से मुठभेड़ के मामले में यह खुलासा चौंकाने वाला है कि उत्तर प्रदेश पुलिस ने सातों आरोपियों को घुटने से नीचे एक ही जगह गोली मारी। झोल सामने आने के बाद मुठभेड़ करने वाले इंस्पेक्टर को सस्पेंड कर मामले की जांच शुरू कर दी गई है। उत्तर प्रदेश ही नहीं, दूसरे राज्यों में भी पुलिस की मनमानी लगातार बढ़ रही है। जम्मू-कश्मीर के हैदरपोरा में हुई मुठभेड़ विवाद से घिर चुकी है तो दो साल पहले हैदराबाद में बलात्कार के चार आरोपियों के मुठभेड़ में मारे जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने मामले की जांच के आदेश दिए थे। उत्तर प्रदेश पुलिस की मुठभेड़ में गैंगस्टर विकास दुबे के मारे जाने के बाद भी कई सवाल उठे थे।
आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-46 में पुलिस को बल प्रयोग के अधिकार हासिल हैं। इसी अधिकार की आड़ में अपेक्षाकृत कम गंभीर मामलों में भी मुठभेड़ को अंजाम दिया जा रहा है। गंभीर पहलू यह भी है कि ऐसी मुठभेड़ को जन समर्थन मिल रहा है, क्योंकि कई लोग मानते हैं कि अदालतों में समय पर इंसाफ नहीं मिलता। मुठभेड़ों में शामिल पुलिस वालों को पदोन्नति और नकद प्रोत्साहन दिया जाता है। ऐसे पुलिसकर्मी समाज में नायक के तौर पर उभरते हैं। लोग मानते हैं कि ये समाज की सफाई का काम कर रहे हैं। ऐसे लोग न्यायपालिका के इस तथ्य को दरकिनार कर देते हैं कि जब तक किसी मामले की पूरी जांज नहीं होती, आरोपी को सजा नहीं दी जानी चाहिए। राजनेताओं-नौकरशाहों का एक वर्ग अपने स्वार्थों के लिए नियम-कानूनों की धज्जियां उड़ा रहा है। समय-समय पर सामने आए फर्जी मुठभेड़ के मामले पुलिस के रंग-ढंग की भयावह तस्वीर उजागर कर चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में साफ कहा था कि फर्जी मुठभेड़ में लोगों को मारना नृशंस हत्या है, जिसे दुर्लभ से दुर्लभतम श्रेणी का अपराध माना जाना चाहिए। यदि किसी पुलिसकर्मी को वरिष्ठ अधिकारी फर्जी मुठभेड़ के लिए कहता है, तो यह उस पुलिसकर्मी की जिम्मेदारी है कि वह ऐसे गैर-कानूनी आदेश पर अमल से इनकार कर दे, अन्यथा उस पर हत्या का आरोप लगाया जाएगा और दोषी पाए जाने पर फांसी की सजा सुनाई जाएगी।
पुलिस सुधार की तमाम कोशिशों के बावजूद देश में पुलिस का चरित्र नहीं बदल पाया है। यह तभी बदलेगा, जब राजनीति उसे औजार की तरह इस्तेमाल करना बंद करेगी। पुलिस को जिम्मेदार व मानवीय बनाने की कोशिशों के साथ उनमें यह भावना पनपाने की जरूरत है कि उसे कानून की हिफाजत करनी है, कानून हाथ में लेकर इसके प्रति लोगों का भरोसा कमजोर नहीं करना है।
आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-46 में पुलिस को बल प्रयोग के अधिकार हासिल हैं। इसी अधिकार की आड़ में अपेक्षाकृत कम गंभीर मामलों में भी मुठभेड़ को अंजाम दिया जा रहा है। गंभीर पहलू यह भी है कि ऐसी मुठभेड़ को जन समर्थन मिल रहा है, क्योंकि कई लोग मानते हैं कि अदालतों में समय पर इंसाफ नहीं मिलता। मुठभेड़ों में शामिल पुलिस वालों को पदोन्नति और नकद प्रोत्साहन दिया जाता है। ऐसे पुलिसकर्मी समाज में नायक के तौर पर उभरते हैं। लोग मानते हैं कि ये समाज की सफाई का काम कर रहे हैं। ऐसे लोग न्यायपालिका के इस तथ्य को दरकिनार कर देते हैं कि जब तक किसी मामले की पूरी जांज नहीं होती, आरोपी को सजा नहीं दी जानी चाहिए। राजनेताओं-नौकरशाहों का एक वर्ग अपने स्वार्थों के लिए नियम-कानूनों की धज्जियां उड़ा रहा है। समय-समय पर सामने आए फर्जी मुठभेड़ के मामले पुलिस के रंग-ढंग की भयावह तस्वीर उजागर कर चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में साफ कहा था कि फर्जी मुठभेड़ में लोगों को मारना नृशंस हत्या है, जिसे दुर्लभ से दुर्लभतम श्रेणी का अपराध माना जाना चाहिए। यदि किसी पुलिसकर्मी को वरिष्ठ अधिकारी फर्जी मुठभेड़ के लिए कहता है, तो यह उस पुलिसकर्मी की जिम्मेदारी है कि वह ऐसे गैर-कानूनी आदेश पर अमल से इनकार कर दे, अन्यथा उस पर हत्या का आरोप लगाया जाएगा और दोषी पाए जाने पर फांसी की सजा सुनाई जाएगी।
पुलिस सुधार की तमाम कोशिशों के बावजूद देश में पुलिस का चरित्र नहीं बदल पाया है। यह तभी बदलेगा, जब राजनीति उसे औजार की तरह इस्तेमाल करना बंद करेगी। पुलिस को जिम्मेदार व मानवीय बनाने की कोशिशों के साथ उनमें यह भावना पनपाने की जरूरत है कि उसे कानून की हिफाजत करनी है, कानून हाथ में लेकर इसके प्रति लोगों का भरोसा कमजोर नहीं करना है।
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