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साँई कम्प्यूटर टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा (म0प्र0) सीपीसीटी न्यू बैच प्रारंभ संचालक- लकी श्रीवात्री मो. नं. 9098909565
created Sep 15th 2021, 04:00 by lucky shrivatri
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लोकतंत्र की सर्वस्वीकृत आधारभूत प्रतिज्ञा को मानें तो लोकतंत्र लोक का होता है, लोक के लिए होता है, और लोक के द्वारा ही संहहहहचालित होता है। यानी लोक की भागीदारी लोकतंत्र की रीढ़ होती है। सचेत रूप से लोक-जीवन लोक-जीवन चले और लोक में अपेक्षित सामर्थ्य आ सकें, इसका आधारभूत उपाय लोक-भाषा होती है। इसी लोक-भाषा की गूंज के बीच आदमी का जन्म और पालन-पोषण होता है। यदि औपचारिक शिक्षा इसी लोक भाषा की निरंतरता में हो तो शैक्षिक दक्षता सुगम हो जाती है। यह लोक भाषायी परिवेश, सुगम हो जाती है। यह लोक भाषायी परिवेश, बिना किसी किस्म के भेद-भाव के व्यापक रूप से सबको उपलब्ध रहता है और उसी के बदौलत सामाजिक संवाद और संचार का काम भी चलता है।
भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक भाषाओं के द्वारा यह काम सदियों से होता आ रहा है। यदि हिन्दी क्षेत्र की बात करें तो सूर, कबीर, तुलसी, जायसी, मीरा, रहीम, रसखान आदि अनेक भाषायी प्रतिभाओं ने इन लोक भाषाओं में कालजयी काव्य रचनाएं की है। अत: इनकी शक्ति को कम नहीं आंकना चाहिए। चूंकि भाषाएं प्रयोग के अधीन होती हैं उनमें कई तरह से परिवर्तन भी आता है। भाषाओं का सामर्थ्य उनके प्रयोग की व्यापकता पर निर्भर करता है जो आर्थिक, सांस्कृतिक सामाजिक, राजनीतिक परिदृश्य पर टिका होता है। चूंकि लोक हित ही लोकतंत्र का चरम लक्ष्य होता है, इसलिए लोक भाषा का उपयोग कोई प्रश्न ही नहीं होना चाहिए। वैकल्पिक पहेली तो नहीं ही होनी चाहिए। भारत में लोकतंत्र तो आया, पर उसकी प्रभावी भाषा यहां की लोक भाषा या देशज भाषा नहीं बन सकी।
न्याय, प्रशासन स्वास्थ्य और उच्च शिक्षा में लोक-भाषा अब भी अनसुनी है। इसका दुष्परिणाम सृजनात्मकता के अभाव, अवसर की उपलब्धता में भेद-भाव और प्रतिभाओं को कुंठित करने वाला रहा है। लोक को वाणी दे कर ही लोकतंत्र की सामर्थ्य बढ़ सकेगी।
भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक भाषाओं के द्वारा यह काम सदियों से होता आ रहा है। यदि हिन्दी क्षेत्र की बात करें तो सूर, कबीर, तुलसी, जायसी, मीरा, रहीम, रसखान आदि अनेक भाषायी प्रतिभाओं ने इन लोक भाषाओं में कालजयी काव्य रचनाएं की है। अत: इनकी शक्ति को कम नहीं आंकना चाहिए। चूंकि भाषाएं प्रयोग के अधीन होती हैं उनमें कई तरह से परिवर्तन भी आता है। भाषाओं का सामर्थ्य उनके प्रयोग की व्यापकता पर निर्भर करता है जो आर्थिक, सांस्कृतिक सामाजिक, राजनीतिक परिदृश्य पर टिका होता है। चूंकि लोक हित ही लोकतंत्र का चरम लक्ष्य होता है, इसलिए लोक भाषा का उपयोग कोई प्रश्न ही नहीं होना चाहिए। वैकल्पिक पहेली तो नहीं ही होनी चाहिए। भारत में लोकतंत्र तो आया, पर उसकी प्रभावी भाषा यहां की लोक भाषा या देशज भाषा नहीं बन सकी।
न्याय, प्रशासन स्वास्थ्य और उच्च शिक्षा में लोक-भाषा अब भी अनसुनी है। इसका दुष्परिणाम सृजनात्मकता के अभाव, अवसर की उपलब्धता में भेद-भाव और प्रतिभाओं को कुंठित करने वाला रहा है। लोक को वाणी दे कर ही लोकतंत्र की सामर्थ्य बढ़ सकेगी।
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