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created Sep 13th 2021, 03:45 by rajni shrivatri
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चुनाव सुधारों की बड़ी-बड़ी बातें तो खूब हुई हैं। लेकिन विजयी उम्मीदवारो के खिलाफ दायर चुनाव याचिकाओं के समय पर निपटारे को लेकर कभी किसी ने चिंता की ही नहीं। लोकसभा से लेकर विधानसभा चुनावों तक में नतीजे आने के बाद ये याचिकाएं दायर होती रही हैं। आम तौर पर पराजित उम्मीदवार अथवा चुनाव लड़ने से वंचित रहे व्यक्ति अथवा क्षेत्र के मतदाताओं की ओर से दायर ये याचिकाएं चुनाव जीतने वाले के निर्वाचन को चुनौती देती हैं। अपेक्षा यही की जाती हैं कि चुनाव याचिकाएं सारहीन हों तो तत्काल खारिज कर दी जाएं। यदि याचिका दायर करने का आधार ठोस हो तो सनवाई प्रक्रिया में तेजी लाकर जल्दी फैसला होना ही चाहिए। पिछले सालों में कई चुनाव याचिकाएं तो तब जाकर खारिज हुईं जब विजयी उम्मीदवार ने अपना कार्यकाल तक पूरा कर लिया। ताजा मामला राजस्थान का है जहां वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव को लेकर दायर की गई चुनाव याचिका को हाईकोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि तत्कालीन विधानसभा का कार्यकाल पूरा हो चुका है और नए चुनाव भी हो गए हैं। ऐसे में फैसला अब प्रभावी नहीं हो सकेगा। याचिकाकर्ता का कहना था कि कांग्रेस पार्टी ने उसे चुनाव चिन्ह आवंटित किया था, पर समान नाम के अन्य व्यक्ति को पार्टी टिकट पर चुनाव लड़ने की मंजूरी देते हुए रिटिर्निंग अधिकारी ने उसका नामांकन खारिज कर दिया। याचिका के तथ्य सही थे या गलत, यह अलग मसला हैं। मसला चुनाव याचिकाओं की सुनवाई में कई कारणों से होने वाली देरी का है। जनप्रतिनिधित्व कानून तक में उल्लेख है कि संबंधित उच्च न्यायालय को छह माह में ऐसे मुकदमें का निपटारा कर लेना चाहिए। चुनाव याचिकाओं में सुनवाई में यह देरी त्वरित न्याय की उम्मीदों को तो खारिज करती ही है, निर्वाचन आयोग जैसी संस्थाओं के लिए भी समस्या पैदा करने वाली रहती है। क्योंकि ऐसी याचिका दायर होने पर संबंधित ईवीएम और वीवीपैट को भी सुरक्षित रखना होता हैं। पिछले दिनों ही निर्वाचन आयोग ने कोरोना संक्रमण के दौरान चुनाव याचिकाएं दायर करने की समय सीमा में दी गई छूट को वापस लेने का सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध भी इसीलिए किया है। ऐसे में जरूरत चुनाव याचिकाओं की सुनवाई और उन पर फैसले की भी समय सीमा तय करने की है ताकि चुनाव याचिकाओं की सुनवाई के वजह से सारहीन होने की नौबत न आए।
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