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created Sep 13th 2021, 01:19 by sachin bansod
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समकालीन विश्व इतिहास में 11 सितंबर 1893 का दिन एक युगांतकारी परिघटना का पड़ाव बना था। उस दिन शिकागो शहर में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन के मंच से स्वामी विवेकानंद ने भारतीय धर्म-संस्कृति का ऐसा शंखनाद किया कि सुनने वाले सम्मोहित होकर रह गए। उन श्रोताओं में जर्मन भाषाविद और प्राच्य विद्या के मर्मज्ञ प्रोफेसर फ्रेडरिक मैक्समूलर और अल्बर्ट आइंस्टीन जैसे मूर्धन्न विज्ञानी भी थे। स्वामी जी के विचार सुनकर भारत को देखने की पश्चिमी विद्यानों की दृष्टि ही बदल गई कि जिसे वे जादू-टोना और सपेरों का देश समझते रहे, वह तो ज्ञान-विज्ञान, दर्शन और साहित्य की अविरल धारा को समेटे है। स्वामी विवेकानंद मानते थे कि, संसार भारत माता का अपार ऋणी है। यदि हम विश्व के सभी राष्ट्रों का तुलनात्मक अध्ययन करें तो पाते हैं कि विश्व में ऐसी कोई जाति नहीं है, जिसका संसार उतना ऋणी है, जितना वह हमारे भद्र हिंदू पूर्वजों का है।पश्चिमी जगत पर स्वामी विवेकानंद का ऐसा असर हुआ कि हिंदूत्व के विविध आयामों पर व्याख्यान के लिए उन्हें जगह-जगह आमंत्रित किया जाने लगा। इसी कड़ी में मैक्समूलर ने स्वामी जी को अपने यहां भोजन पर आमंत्रित किया। यह 28 मई 1896 की तिथि थी। मैक्समूलर से घंटों शास्त्रर्थ हुआ। मैक्समूलर से मिलकर स्वामी जी भी अभिभूत हुए। इस मुलाकात पर अपने संस्मरण में उन्होंने लिखा कि जैसे वह प्राचीन भारत के किसी महान ऋषि के समक्ष बैठे हैं। उन्हें लगा कि ऋषि वशिष्ठ और अरुंधती ईश्वर प्राणिधान में मग्न हैं। विवेकानंद और मैक्समूलर का यह मिलन महज दो व्यक्तियों का मिलन नहीं था। यह संगम उन पूर्वाग्रहों का पराभव था, जो रुडयार्ड किपलिंग जैसों की दृष्टि में कभी संभव नहीं था, क्योंकि वह पश्चिम को सदैव पूरब से श्रेष्ठ मानते रहे। इस प्रकार विवेकानंद और मैक्समूलर का मिलन वास्तव में पूरब और पश्चिम का सेतुबंधन था।
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