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BUDDHA ACADEMY TIKAMGARH (MP) || ☺ || ༺•|✤आपकी सफलता हमारा ध्‍येय✤|•༻

created Jan 25th 2021, 05:48 by VivekSen1328209


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कौन बलवान है और कौन दुर्बल, इसकी परीक्षा करने की कसौटी यह होनी चाहिये कि कौन कितना सहिष्‍णु है और कौन कितना असहिष्‍णु है। जो तनिक-सी विपरीतता सामने आते ही उबल पड़ता है या डरने, कांपने लगता है, समझना चाहिये कि यह दुर्बल किस्‍म का मनुष्‍य है। अन्‍त: चेतना की दयनीय स्थिति इसे बढ़ कर और क्‍या हो सकती है कि उसे हवा के झोंके हल्‍के तिनके की तरह किधर भी उड़ा ले जांय और वह वैसे किसी झोंके का प्रतिरोध कर सकें। भारी और वजनदार वस्‍तुओं का मूल्‍य और टिकाऊपन इसलिये होता है कि वे अवरोधों को सहन करते हुए अपनी राह पर, अपनी दिशा में ठीक तरह चलती रह सकती है। रेलगाड़ी और वायुयान यदि हवा के प्रवाह की दिशा में चलते-उड़ने लगे तो फिर उनमें बैठने का ईश्‍वर ही रक्षक है। हर मनुष्‍य की आकृति एक दूसरे से भिन्‍न है और प्रकृति भी। हर आदमी की मन:स्थिति एक-सी नहीं होती। उसके सोचने का अपना तरीका होता है और निर्णय करने का अपना ढंग। उसमें सुधार-परिवर्तन भी होता है पर आवश्‍यक नहीं कि हर व्‍यक्ति दूरदर्शी और विचारशील ही हो। साथ ही यह भी अनिवार्य नहीं कि मनुष्‍यों की विचारधारा, रूचि, प्रकृति और मन:स्थिति एक जैसी हो। इस प्रकृति प्रदत्‍त भिन्‍नता को हमें ध्‍यान में रखना होगा और यह मान कर चलना होगा कि समन्‍वयशीलता और सहिष्‍णुता की नीति अपना कर यथासंभव अधिक से अधिक ताल-मेल बिठा सकने में ही आंशिक सफलता मिल सकती है और उसी कामचलाऊ समझौते के आधार पर जीवन को गतिशील रखा जा सकता है। हमारी ही आकृति या प्रकृति के सब लोग बन जाय, यह सोचना बेकार है। हमारा ही नियंत्रण, अनुशासन या परामर्श परिवार में या पड़ौस में शिरोधार्य किया जाना चाहिये, यह आकांक्षा थोड़े अहंकार का विज्ञापन करती है। हम दूसरे के शुभ-चिंतक और परामर्शदाता हो सकते हैं और उन्‍हें श्रेष्‍ठ पथ पर चलाने के लिये अपनी सूझबूझ के अनुसार भरसक प्रयत्‍न कर सकते हैं, यह अपनी मर्यादा है। इस मर्यादा में रह कर ही हमारी सज्‍जनता अक्षुण्‍ण रह सकती है, इसके आगे बढ कर जब हमें दूसरों को माध्‍य करने जितना दबाव डालते हैं और आतंकवादी आधारों को अपनाते हैं तो यह भूल जाते हैं कि यह मनुष्‍य की मर्यादाओं का उल्‍लंघन है। आक्रमण को रोकना आत्‍म-रक्षा की दृष्टि से सही है पर अपना अनुयायी बनाने के लिये बाध्‍य करना मानवीय अधिकारों के अपहरण के बराबर है। सभी मनुष्‍य हमारे जैसे विचार के नहीं हो सकते हैं और हर परिस्थिति हमें प्रिय लगने वाली हो सकती है। ऐसी दिशा में सहिष्‍णुता ही अपनानी पड़ती है यदि ताल-मेल बैठता हो तो उन परिस्थितियों से हट जाने या हटा देने का रास्‍ता अपनाया जा सकता है, पर निरंतर टकराव का कोई प्रयोजन नहीं। सुधार अपनी मर्जी जैसा नहीं हो सकता तो इसे दुर्भाग्‍य मान बैठना और खीजने या असंतुलित होने लगना व्‍यर्थ है। हमें व्‍यक्तियों अथवा परिस्थितियों की विपरीतता देखकर आवेश ग्रस्‍त होना चाहिये। क्रोध में आना या हताश हो बैठना दोनों ही मनुष्‍य की आंतरिक कमजोरी की निशानी हैं। परिस्थितियों से धैर्य और औचित्‍य के आधार पर निपटा जाना चाहिये और सफलता को अनिवार्य मान कर अपने प्रयास एवं कर्तव्‍य की सीमा में संतोष करना चाहिये।

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