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सॉंई टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 सीपीसीटी न्यू बैच प्रारंभ संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नं. 9098909565
created Jan 23rd 2021, 10:30 by vinitayadav
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देश के भीतर एक वीआइपी कल्चर हैं। देश को चलाने वाली संस्थाओं में बैंठे लोगों को मिलने वाली रियायतें और विशेष दर्जा देने वाली कोशिशें उन्हें आम लोगों से अलहदा कर देती हैं। मसलन, लालबत्ती कल्चर को भी इससे ही जोड़कर देखा जाता था। सरकार ने पहल की और गाडि़यों में लाल बत्ती लगाकर विशेष बनने की कोशिशों पर काफी हद तक विराम लग गया। ठीक इसी तरह लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने अहम फैसला लेते हुए संसद के भीतर कैंटीन में मिलने वाली सब्सिडी को बंद कर दिया है। उत्तर रेलवे के बजाय अब आइटीडीसी संसद की कैंटीनों का संचालन करेगी। यहां पर बाजार दर पर ही भोजन मिल सकेगा। गौरतलब है कि सब्सिडी खत्म करने की मांग काफी समय से हो रही थी। सब्सिडी की वजह से देश के संसदों के संसद की कैंटीन में खाना काफी कम दाम पर मिलता था। संसद की तर्ज पर राज्यों में चलने वाली सरकारी कैंटीनों पर भी अब ऐसा ही निर्णय लेने के लिए नैतिक दबाव पड़ेगा।
दरअसल, इस कोशिश को देश की जड़ों में प्रवेश कर गई वीआइपी कल्चर को खत्म करने की दिशा में एक पहल के तौर पर देखा जाना चाहिए। यह निर्णय महत्तवपूर्ण है और हिम्मत भरा भी। इसके लिए बधाई के पात्र हैं लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला। कैंटीन में मिलने वाली सब्सिडी खत्म करने के लिए लोकसभा अध्यक्ष बिरला ने ही सुझाव दिया था। सभी पार्टियों ने इस मसले पर सहमति जताई थी। आखिर जनप्रतिनिधि देश के आमजन से अलग कैसे हो सकते हैं? राजनीति में जिस तरह से चकाचौंध और वीआइपी संस्कृति प्रवेश कर गई है, उसने जनप्रतिनिधियों को आम लोगों से न केवल दूर कर दिया है, बल्कि विशेष होने का एहसास भी करा दिया हैं? ये वे लोग हैं, जिन्हें जनता अपना प्रतिनिधि चुनकर सदनों में भेजती है। इसलिए उन्हें तो जनता के सेवक की तरह ही व्यवहार करना चाहिए? उन्हें क्यों विशेष रियायतें दी जानी चाहिए? क्यों यह प्रदर्शित करने की कोशिश की जाए कि वे सामान्य से अलग व्यक्ति हैं? सांसदों-विधायकों को उनके वेतन-भत्तें मिलते हैं और दूसरी सुविधाएं भी। उसके बाद सदनों में चल रही कैंटीनों के लिए सब्सिडी देना कहीं से भी उचित नहीं।
आखिरी वीआइपी के ऊपर सब्सिडी के जरिए होने वाले खर्च का बोझ देश के टैक्सदाता पर क्यों होना चाहिए? सरकार को इस तरह के दूसरे और भी माध्यमों को करीब से देखना चाहिए और उनकी समीक्षा करवानी चाहिए। अगर कहीं और भी इस तरह की बेवजह की सब्सिडी दी जा रही हो, तो उसे तत्काल बंद किया जाए।
दरअसल, इस कोशिश को देश की जड़ों में प्रवेश कर गई वीआइपी कल्चर को खत्म करने की दिशा में एक पहल के तौर पर देखा जाना चाहिए। यह निर्णय महत्तवपूर्ण है और हिम्मत भरा भी। इसके लिए बधाई के पात्र हैं लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला। कैंटीन में मिलने वाली सब्सिडी खत्म करने के लिए लोकसभा अध्यक्ष बिरला ने ही सुझाव दिया था। सभी पार्टियों ने इस मसले पर सहमति जताई थी। आखिर जनप्रतिनिधि देश के आमजन से अलग कैसे हो सकते हैं? राजनीति में जिस तरह से चकाचौंध और वीआइपी संस्कृति प्रवेश कर गई है, उसने जनप्रतिनिधियों को आम लोगों से न केवल दूर कर दिया है, बल्कि विशेष होने का एहसास भी करा दिया हैं? ये वे लोग हैं, जिन्हें जनता अपना प्रतिनिधि चुनकर सदनों में भेजती है। इसलिए उन्हें तो जनता के सेवक की तरह ही व्यवहार करना चाहिए? उन्हें क्यों विशेष रियायतें दी जानी चाहिए? क्यों यह प्रदर्शित करने की कोशिश की जाए कि वे सामान्य से अलग व्यक्ति हैं? सांसदों-विधायकों को उनके वेतन-भत्तें मिलते हैं और दूसरी सुविधाएं भी। उसके बाद सदनों में चल रही कैंटीनों के लिए सब्सिडी देना कहीं से भी उचित नहीं।
आखिरी वीआइपी के ऊपर सब्सिडी के जरिए होने वाले खर्च का बोझ देश के टैक्सदाता पर क्यों होना चाहिए? सरकार को इस तरह के दूसरे और भी माध्यमों को करीब से देखना चाहिए और उनकी समीक्षा करवानी चाहिए। अगर कहीं और भी इस तरह की बेवजह की सब्सिडी दी जा रही हो, तो उसे तत्काल बंद किया जाए।
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