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सॉंई टायपिंग इंस्टीट्यूट गुलाबरा छिन्दवाड़ा म0प्र0 सीपीसीटी न्यू बैच प्रारंभ संचालक:- लकी श्रीवात्री मो0नं. 9098909565
created Oct 28th 2020, 06:27 by rajni shrivatri
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ऐसा लगता है कि न्यायपालिका ने भी राजनीति के अपराधीकरण के मामले में हार मान ली है। ऐसे में चुनाव आयोग की तो बिसात ही क्या है। संसद, विधानसभाओं, स्थानीय निकायों और पंचायतों में अपराधियों की संख्या बढ़ती जा रही है। हत्या, अपहरण, लूटपात जैसे संगीन अपराधों में प्रथम दृष्टया लिप्त पाए गए बाहुबली आज कानून बनाने वाली संस्थाओं में बैठे मोज कर रहे है और देश की आम जनता लाचार होकर तमाशा देख रही है। जनता की क्यों न्यायपालिका भी बेबस सी नजर आ रही है। वह कुछ अनमने कदम उठाती भी है तो नैतिक रूप से भ्रष्ट राजनीतिक दल उन्हें विफल करने में जुट जाते है। जनता को थोड़ी बहुत उम्मीद न्यायपालिका से रहती है, पर इतिहास गवाह है कि राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करना उसकी प्राथमिकता में बहुत पीछे छूट गया है।
कहने को तो सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालयों को निर्देश दिए थे कि जनप्रतिनिधियों से जुड़े आपराधिक मामलों की सुनवाई शीघ्र हो। ऐसे मामलों में स्टे नहीं दिए जाएं, पर उच्च न्यायालयों ने इन निर्देशों पर ध्यान नहीं दिया। अपराध के आरोप वाले राजनेताओं पर वर्षो तक मामले कछुआ रफ्तार से चलते रहते है। आमतौर पर न्यायापालिका यह तर्क देती है कि राजनीतिक दल अपराधियों को टिकट ही क्यों देते है। सवाल यह भी पूछा जा सकता है कि न्यायपालिका इनके मामलों की जल्दी सुनवाई क्यों नहीं करती। क्यों फास्ट ट्रैक अदालतों की गेंद सरकार के पाले में डाल कर कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है। यह जानते हुए भी कि नैतिक रूप से पतित सरकारें कोई ऐसा कदम नहीं उठाएंगी जिससे उनकी आंखों के तारे सींखचों के पीछे जाए। चुनाव आयोग में भी इतना साहस नहीं है कि वह हलफनामें मांगने से आगे बढ़ सके।
लोकतंत्र के तीनों पायों ने एक इतने कड़वे सच से आंखे मूंद रखी हैं, जिसने पूरे देश के चरित्र को चंद अपराधियों के हाथों गिरवी रख रखा है। कहने को हम अपने लोकतंत्र को विश्व का श्रेष्ठ लोकतंत्र कहने का दम भरते है, लेकिन कौन नहीं जानता कि इन तीनों संस्थाओं की देश के प्रति उत्तरदायित्वहीनता के कारण हमारा लोकतंत्र खोखला होता जा रहा है। जातिवाद, हिंसक राजनीति, काले धन और बढ़ते अत्याचारों की दीमकें अगर लोकतंत्र की जडों को खोखला कर रही है तो इसके लिए सबसे ज्यादा कसूरवार ये ही संस्थाएं होगी। जनता को सबसे ज्यादा उम्मीद न्यायपालिका से रहती है, उसने भी हार मान ली तो हमें उन देशों की कतार में शामिल होने से कोई नही रोक पाएगा जहां माफिया सरकारें चला रहे है। आज न्यायपालिका चाहे तो आपराधिक मामलों को तेज गति से निपटाने के बहत से तरीके है। वीडियों कांफ्रेंसिंग से सुनवाई तक के सफलतापूर्वक प्रयोग हुए है।
कहने को तो सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालयों को निर्देश दिए थे कि जनप्रतिनिधियों से जुड़े आपराधिक मामलों की सुनवाई शीघ्र हो। ऐसे मामलों में स्टे नहीं दिए जाएं, पर उच्च न्यायालयों ने इन निर्देशों पर ध्यान नहीं दिया। अपराध के आरोप वाले राजनेताओं पर वर्षो तक मामले कछुआ रफ्तार से चलते रहते है। आमतौर पर न्यायापालिका यह तर्क देती है कि राजनीतिक दल अपराधियों को टिकट ही क्यों देते है। सवाल यह भी पूछा जा सकता है कि न्यायपालिका इनके मामलों की जल्दी सुनवाई क्यों नहीं करती। क्यों फास्ट ट्रैक अदालतों की गेंद सरकार के पाले में डाल कर कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है। यह जानते हुए भी कि नैतिक रूप से पतित सरकारें कोई ऐसा कदम नहीं उठाएंगी जिससे उनकी आंखों के तारे सींखचों के पीछे जाए। चुनाव आयोग में भी इतना साहस नहीं है कि वह हलफनामें मांगने से आगे बढ़ सके।
लोकतंत्र के तीनों पायों ने एक इतने कड़वे सच से आंखे मूंद रखी हैं, जिसने पूरे देश के चरित्र को चंद अपराधियों के हाथों गिरवी रख रखा है। कहने को हम अपने लोकतंत्र को विश्व का श्रेष्ठ लोकतंत्र कहने का दम भरते है, लेकिन कौन नहीं जानता कि इन तीनों संस्थाओं की देश के प्रति उत्तरदायित्वहीनता के कारण हमारा लोकतंत्र खोखला होता जा रहा है। जातिवाद, हिंसक राजनीति, काले धन और बढ़ते अत्याचारों की दीमकें अगर लोकतंत्र की जडों को खोखला कर रही है तो इसके लिए सबसे ज्यादा कसूरवार ये ही संस्थाएं होगी। जनता को सबसे ज्यादा उम्मीद न्यायपालिका से रहती है, उसने भी हार मान ली तो हमें उन देशों की कतार में शामिल होने से कोई नही रोक पाएगा जहां माफिया सरकारें चला रहे है। आज न्यायपालिका चाहे तो आपराधिक मामलों को तेज गति से निपटाने के बहत से तरीके है। वीडियों कांफ्रेंसिंग से सुनवाई तक के सफलतापूर्वक प्रयोग हुए है।
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