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बंसोड टायपिंग इन्‍स्‍टीट्यूट छिन्‍दवाड़ा सीपीसीटी प्रवेश प्रांरभ मो.नं.8982805777 संचालक सचिन बंसोड

created Oct 21st 2020, 04:46 by sachinbansod1609336


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साहित्‍य के मंचों का इस्‍तेमाल किस तरह सस्‍ती राजनीति करने के लिए होने लगा है, इसका ताजा प्रमाण है कांग्रेसी सांसद शशि थरूर का लाहौर साहित्‍य उत्‍सव में यह कहना कि भारत के मुकाबले पाकिस्‍तान ने कोरोना पर नियंत्रण पाने का काम कहीं अच्‍छे से किया। वह चाहे जिस कारण इस नतीजे पर पहुंचे हों, लेकिन उनका उद्देश्‍य केवल यही बताना नहीं था। चूंकि उनका मकसद पाकिस्‍तानी जनता के सामने मोदी सरकार को नीचा दिखाना था, इसलिए वह यह भी कह गए कि भारत में मुसलमानों और पूर्वोत्‍तर के लोगों के साथ भेदभाव होता है। उन्‍होंने मुसलमानों से भेदभाव के अपने आरोप को सही बताने के लिए तब्‍लीगी जमात का उल्‍लेख किया तो पूर्वोत्‍तर के लोगों को चीनियों की तरह दिखने वाला बताया। हैरानी नहीं कि उन्‍होंने मणिशंकर अय्यर की याद ताजा करा दी, जिन्‍होंने पाकिस्‍तान में ही आयोजित इसी तरह के एक कार्यक्रम में यह कहा था कि नरेंद्र मोदी को हटाए बगैर दोनों देशों के रिश्‍ते सुधरने वाले नहीं। उन्‍होंने तो मोदी को हटाने में पाकिस्‍तान से मदद तक मांग ली थी। गनीमत है कि शशि थरूर ने ऐसा कुछ नहीं किया, लेकिन उन्‍होंने पाकिस्‍तान के मन की मुराद दूसरे तरीके से अवश्‍य पूरी की। क्‍या इससे दु:खद-दयनीय बात और कोई हो सकती है कि जो व्‍यक्ति संयुक्‍त राष्‍ट्र में लंबे समय तक काम करने के साथ इस संस्‍था के महासचिव पद के लिए भारत का उम्‍मीदवार रहा हो, उसने पाकिस्‍तान के सामने देश की छवि मलिन करना और इमरान खान की भाषा बोलना पसंद किया। यह केवल घटिया राजनीति ही नहीं, क्षुद्रता की पराकाष्‍ठा भी है। वह इस तरह की क्षुद्रता एक अर्से से दिखा रहे हैं। शायद इसका एक बड़ा मकसद यह है कि इससे कांग्रेस में और खासकर राहुल गांधी की निगाह में उनका कद बढ़ेगा। उनकी ताजा हरकत से उनके चाहे जिस संकीर्ण राजनीतिक स्‍वार्थ की पूर्ति हुई हो, लेकिन एक बुद्धिजीवी नेता के तौर पर उन्‍होंने अपनी गरिमा अपने हाथों गिराने का ही काम किया है। कम से कम अंतरराष्‍ट्रीय राजनय से भली तरह परिचित उनके जैसे लोगों को तो यह बुनियादी समझ होनी ही चाहिए कि किस मंच पर क्‍या बोलना है और क्‍या नहीं? क्‍या लाहौर साहित्‍य उत्‍सव में अपने देश और उसकी सरकार को नीचा दिखाना आवश्‍यक था? सवाल यह भी है कि अगर उन्‍हें पूर्वोत्‍तर के लोगों और मुसलमानों के साथ होने वाले तथाकथित भेदभाव के बारे में बातें करना आवश्‍यक जान पड़ रहा था तो क्‍या उन्‍होंने पाकिस्‍तान में जानवरों से भी बदतर जिंदगी गुजार रहे अल्‍पसंख्यकों के बारे में भी कुछ कहना जरूरी समझा या फिर उनकी साहित्यिक और राजनीतिक समझ ने उन्‍हें इसकी इजाजत नहीं दी?
 
 

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