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BANSOD TYPING INSTITUTE CHHINDWARA MOB. NO. 8982805777
created Sep 26th 2020, 05:11 by shilpa ghorke
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निर्वाचन आयोग की ओर से बिहार विधानसभा चुनाव की घोषणा के साथ ही पक्ष-विपक्ष के बीच जोर आजमाइश का एक और मैदान सज गया। आम तौर पर किसी राज्य में चुनावी तिथियों की घोषणा के बाद जीत-हार के अनुमान लगाने का सिलसिला तेज हो जाता है। यह बिहार को लेकर भी तेज होगा, लेकिन मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए इस नतीजे पर पहुंचना ज्यादा कठिन काम नहीं कि वहां किसकी जीत-हार संभावित है? इसका कारण यह है कि बिहार में विकल्पहीनता की स्थिति उभर रही है। यह स्थिति पक्ष-विपक्ष के बीच कांटे की टक्कर सरीखा माहौल शायद ही बनाए। विपक्षी खेमा भले ही खुद को महागठबंधन बताए, लेकिन उसमें महा जैसा कुछ दिख नहीं रहा है। एक समय बिहार में बड़ी राजनीतिक ताकत रहा लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल उनके जेल जाने के बाद से तो कमजोर पड़ा ही है, उसके कुछ सहयोगी भी उसका साथ छोड़ गए हैं। तेजस्वी यादव की कार्यशैली से नाराज होकर पहले जीतनराम मांझी महागठबंधन से छिटके, फिर उपेंद्र कुशवाहा। भले ही इन दोनों नेताओं का व्यापक जनाधार न हो, लेकिन उनके राजद से अलग होने से जनता को यह संदेश तो गया ही कि महागठबंधन पहले जैसा मजबूत नहीं रहा। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि हाल में राजद के कई नेताओं ने जदयू की ओर रुख किया है। कांग्रेस अवश्य महागठबंधन की एक प्रमुख घटक है, लेकिन उसकी महत्ता सहयोगी दल के रूप में ही अधिक रह गई है। राज्य के तीसरे सबसे बड़े दल का अपना दर्जा वह तभी बनाए रख सकती है, जब उसे किसी अन्य का साथ मिले। स्पष्ट है कि बिहार का राजनीतिक परिदृश्य विपक्ष की कमजोरी को रेखांकित कर रहा है। इसी कमजोरी के कारण बिहार की जनता के समक्ष ज्यादा विकल्प नहीं दिख रहे। इसका लाभ जदयू-भाजपा को मिलना स्वाभाविक है। जहां महागठबंधन में मुख्यमंत्री के दावेदार को लेकर सवाल हैं, वहीं सत्तापक्ष में इसे लेकर कोई संशय नहीं कि वह नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ने जा रहा है। यह सही है कि एक अर्से से रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी सत्तारूढ़ गठबंधन से अपने मोहभंग को बयान कर रही है, लेकिन इसके आसार कम हैं कि वह उससे अलग होकर खुद के बलबूते चुनाव लड़ने का फैसला करेगी। इसके बावजूद इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि वह उन छोटे राजनीतिक दलों के साथ जा खड़ी हो, जो आपस में मिलकर तीसरे मोर्चे की जमीन तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि इस तरह के मोर्चे नाकामी की ही कहानी कहते रहे हैं, लेकिन राजनीति में कभी भी कुछ भी हो सकता है।
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