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सेवा परम धर्म

created Jul 30th 2020, 10:17 by Soniya S


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'सेवा मनुष्‍य की स्‍वाभाविक वृत्ति है, सेवा ही उसके जीवन का आधार है' उपन्‍यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्‍द्र के इस कथन का अभिप्राय युवावस्‍था के आगमन पर समझ में आने लगता है, जब व्‍यक्ति घर गृहस्‍थी के जंजाल में उनझने लगता है, वह अपनी पत्‍नी और संतान के लिए बहुत कुछ निस्‍पृह भाव से करने के लिए ि‍विवश हो जाता है - किसी बाह्य दवाब के कारण नहीं बल्कि आंतरीक प्रेरणा के कारण
प्रकृति में सेवा का नियम अव्‍याहत गति से कार्य करता हुआ दिखाई देता है, सूर्य और चन्‍द्र विश्‍व को प्रकाश एवं उष्‍णता प्रदान करते हैं, वायु जीवनदायक श्‍वास प्रदान करती है, पृथ्‍वी रहने का स्‍थान देती है, वृक्ष छाया देते हैं आदि। वे ऐसा जीवन किसी प्रतिफल प्राप्ति के लिए नहीं करते वे केवल अपने जन्‍मजात स्‍वभाववश ऐसा करते हैं। हम भी दीन-दुखियों की सहायता  किसी आन्‍तरीक प्रेरणावश ही करते हैं। सड़क के किसी कोने में पड़े घायल या बेहोश व्‍यक्ति को उठाकर जब अस्‍पताल ले जाते हैं, तब क्‍या हम यह सोचते हैं कि वह अच्‍छा होने पर  हमको पुरूस्‍कार देगा अथवा कभी हमारे घायल अथवा बेहोश हो जाने पर यह हमें अस्‍पताल पहुँचाएगा?
यह सेवा-भाव जब सप्रयास विकसित किया जाता है, तब वह व्‍यक्ति का सद्गुण एवं समाज की विभूति बन जाता है। जो लोग सेवा भाव रखते हैं और स्‍वार्थ सिद्धि को जीवन का लक्ष्‍य नहीं बनाते, उनको सहयोग देने वालो की कभी कमी नही रहती है। गोस्‍वामी तुलसीदास के अनुसार “सेवा-धर्म कठिन जग जाना” अर्थात् संसार जानता है कि सेवा करना बहुत कठिन काम है। सेवा में स्‍वार्थ-त्‍याग और निरहंकारता परम आवश्‍यक है।
अहंकार रहित व्‍यक्ति विश्‍व के कण-कण को अपने समान समझता है, उसके लिए सब आत्‍मवत् होते हैं-  कम-से-कम वह किसी को भी अपने से छोटा, हेय, तुच्‍छ अथवा हीन नहीं समझता है और प्राणिमात्र के साथ एकत्‍व की अनुभूति करता है। वह अपने प्रत्‍येक कार्य को सर्वव्‍यापी परम प्रभु की सेवा के भाव से करता है। सेवा-भाव द्वारा उसको आत्‍म साक्षात्‍कार अथवा परमात्‍मा का दर्शन होता है।
आत्‍म साक्षात्‍कार के संदर्भ में सेवा वस्‍तुत: साधन और साध्‍य दोनों है, अर्थात् सेवा का फल सेवा द्वारा प्राप्‍त आनंद के अतिरिक्‍त कुछ नहीं होता है जिस प्रकार भक्ति का फल भक्ति ही होता है। जगत के प्राणियों की सेवा ही जगत को बनाने वाले की सच्‍ची सेवा-पूजा एवं भक्ति है।  
महात्‍मा गौतम में अत्‍यन्‍त स्‍पष्‍ट शब्‍दों में कहा है कि जिसे मेरी सेवा करनी है, वह पीडि़तो की सेवा करे। युगपुरूष महात्‍मा गांधी ने भी कहा है कि लाखों गूँगों के हृदय में ईश्‍वर विराजमान है...मैं उसके ि‍सिवा अन्‍य किसी ईश्‍वर को नहीं मानता। मैं इन लाखो की सेवा द्वारा उस ईश्‍वर की सेवा करता हूँ।

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