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सड़क की आपबीती
created Jul 25th 2020, 10:34 by soni51253
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मैं सड़क हूं। अब यह मत पूछिएगा कि कहां की हो । इसी देश की हूं। यहीं के रोड़ी, कंकड़, तारकोल से निर्मित हूं। मेरे निर्माता मजदूर, ठेकेदार, इंजीनियर भी यहीं के हैं। लेकिन यह सब मैं क्यों बता रही हूं। यह तो आपको भी पता है और सरकार को भी। मैंने आप लोगों से ही सुना है कि दुख-दर्द बांटने से कम हो जाते हैं, इसलिए सोचा कि क्यों न अपना दुख-दर्द बांटकर थोड़ा कम ही कर लूं, क्योंकि इन दिनों मैं पैदल चल रहे अपने देश के मजदूर भाई-बहनों की हालत देखकर इतनी दुखी हूं कि लफ्जों के जरिए बता पाना मुश्किल हो रहा है। सच पूछिए तो मैं इतनी दुखी तो तब भी नहीं होती, जब बारिश के दौरान मेरे सीने में गड्ढ़े पड़ जाते हैं। चिलचिलाती धूप से मेरी तारकोल रूपी चमड़ी पिघलने लग जाती है। मैं अपने जीवन काल में न जाने कितनी बार टूटी-फूटी हूं, पर कभी मुझ पर चलने बाले लोगों को प्रवासी मजदूरों जितनी तकलीफ नहीं उठानी पड़ी होगी। मैंने साइकिल से लेकर ट्रक तक का भार वहन किया है, पर आजकल मुझसे मजदूर भाई-बहनों का मामूली सा भार वहन नहीं हो रहा है। माना कि मेरा दिल कंकड़-पत्थर से निर्मित है, लेकिन मैं पत्थर दिल नहीं हूं। मजदूरों के पैरों में छाले पड़ते ही मेरी आंखों से आंसू छलक पड़ते हैं। महिलाओं के सिर पर अपनी जिम्मेदारियों का बोझ और गोद में देश का भविष्य देखकर में स्तब्ध हूं। सरकार को खूब कोस रही हूं। पर सरकार ने मेरी कब सूनी है जो अब सुन लेगी। सरकार जनता द्वारा चुने हुए जनप्रतिनिधि बनाते हैं, ये मजदूर नहीं। मुझे तो लगता है कि शायद जनता में ये प्रवासी मजदूर आते ही नहीं हैं। अगर आते तो भूखे-प्यासे पैदल नहीं चल रहे होते। मैं रोज यही सोचती हूं कि आज शायद ही कोई मजदूर मेरे ऊपर से गुजरेगा। लेकिन कारवां टूट नहीं रहा है। मजदूरों की देह से मेरी देह पर इतना पसीना पड़ रहा है कि चिलचिलाती धूप न हो तो दरिया बहने लग जाए। लेकिन वे पसीना सुखाने के बजाए चले जा रहे हैं। मैं चाहकर भी कुछ नहीं कर पाती। मेरे पास रोड़ी, कंकड़ पत्थर, तारकोल के सिवाय कुछ भी नहीं है।
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