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धर्म और कर्म का तालमेल

created May 21st 2020, 15:01 by 123Aravind


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मानव आत्‍मा जब तक शरीर में है, कर्म से मुक्‍त नहीं हो सकती। उसमें भी युवावस्‍था सर्वाधिक कार्यशील अवस्‍था है। इस अवस्‍था में उसमें अतिरिक्‍त शक्ति होती है। यदि इस अतिरिक्‍त शक्ति का रचनात्‍मक कार्यों में प्रयोग किया जाए अथवा युवकों को सन्‍तोष, शान्ति, सद्विचार देने वाला कोई उपाय अपनाया जाए तो वह अतिरिक्‍त शक्ति या तो उन्‍हें बुरी आदतों में डाल देती है या वे उन शक्तियों का दुरुपयोग विध्‍वंसात्‍मक गतिविधियों में करते हैं। अत: कर्म के साथ धर्म अर्थात् सद्गुणों की धारणा का सन्‍तुलन बाल्‍यकाल से ही अनिवार्य है। हम कह सकते हैं कि जब मानव सर्वाधिक कर्मशील हो तब उसका सर्वाधिक धर्मशील होना भी अनिवार्य है।
धर्म कहता है, झुक जाओ
मान लीजिए, दो गाडि़यॉं आमने-सामने हैं। दोनों के चालकों को अपने-अपने कार्य की जल्‍दी है। एक कहता है, तुम पीछे हटो, मैं निकलूँ। दूसरा कहता है, नहीं, तुम थोड़े पीछे हट जाओ, पहले मैं निकल जाता हूँ। इस मैं-मैं में दोनाें अकड़कर खड़े हैं। दोनाें कर्मशील तो हैं, दोनों को अपने-अपने कार्यों की जल्‍दी तो है परन्‍तु दाेनों में से एक भी धर्मशील हाे अर्थात् धर्म की धारणा वाला हो, गुणों को धारणा वाला हो तो उन दोनों की मैं-मैं के दौरान दोनों के पीछे की ओर खड़ी हुई 100-100 गाडि़यों को समय भी बच सकता है। धर्म कहता है।

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