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अगर मैं पुलिस कमिश्नर होता

created May 8th 2020, 11:55 by soni51253


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एक कहावत के अनुसार मुगल बादशाह हुमायूं ने स्वयं को नदी में डूबने से बचाने वाले एक भिश्ती को एक दिन के लिए दिल्ली की सल्तनत सौंप दी तो भिश्ती ने जरा-सा भी समय बर्बाद किए बगैर अपने सगे-संबंधियों को राज्य में ऊंची नौकरियों पर बिठा दिया और अपने नाम के सिक्के चला दिए। हुमांयू तो राजा था और उसके पास सत्ता थी। इसलिए वह भिश्ती तो क्या, किसी भी ऐरे-गैरे को थोड़े समय के लिए कुछ भी बना सकता था। मेरे एक मित्र संपादक हैं। संपादक होने के नाते, उनकी सत्ता की ताकत, बहुत हुई तो इतनी ही है कचरे-जैसे मेरे लेख अपनी पत्रिका में छाप सके। लेकिन मुझे एक सप्ताह के लिए शहर का पुलिस-प्रमुख बनाने की बात उन्हें सूझी, जिसे मैंने मान लिया। साथ ही साथ इस बात का लोभ भी है कि भलामानस अगर और उदार हो गया और लगे हाथ बाकी इक्यावन सप्ताहों का एक्सटेंशन भी दे दिया तो एकाध वर्ष में आदमी कुछ भी कर सकता है। जिस तरह समाज  में हास्य-लेखक की स्थिति ईर्ष्या करने लायक नहीं है, उसी तरह पुलिस की इमेज भी अच्छी नहीं है। पुलिस में जिसका ओहदा जितना बड़ा होता है, जनता में उसके भ्रष्टाचारी होने की छवि उतनी ही गहरी होती है। पुलिस ईमानदार हो सकती है, यह बात प्रजा की कल्पना से बाहर है। फिर समाज में ईमानदार होना ही काफी नहीं है। लोग ईमानदार समझें, यह बात महान मानी जाती है। पुलिस के लिए यह संभव नहीं है। मैं भले ही इस तरह का हो भी लूं, लेकिन मुझे अपने एकमात्र पुत्र को सज्जन, संस्कारी और सदाचारी बनाना है, इसके लिए उसे विदेश भेजना है। मैं भी यही मानता हूं कि परदेस जाकर ही आदमी सुसंस्कृत हो सकता है। खलील जिब्रान की एक लघुकथा याद आती है, जिसमें एक व्यापारी अपनी पत्नी से कहता है कि अगर इस वर्ष शराब काफी मात्रा में बिक गई तो अपने लड़के को नीतिशास्त्र पढ़ने के लिए विदेश भेजना है। कितना ही लायक क्यों हो, चाहे दारू का व्यापारी हो, पुलिस-अधिकारी या मंत्री हो, पहले तो वह बाप ही है, बाद में कुछ और।  
पुलिस कमिश्नर का चार्ज संभालने के दिन ही एक धर्मार्थ-संस्था की स्थापना करूंगा। अपने भाई को इस ट्रस्ट का मैनेजिंग डाइरेक्टर बना दूंगा। शराब का अड्डा चलाने वालों से,खून या लूटपाट के वालों से जो कुछ पैसे ट्रस्ट को मिलेंगे, उसके लिए पक्की रसीद दूंगा। रिश्वत की रसीद कोई नहीं देता है, मैं दूंगा और इस तरह रिश्वत का गौरव बढ़ाऊंगा। अलबत्ता, रिश्वत को कानूनी बनाने के लिए नाम तो उसका डोनेशन ही रखना होगा। जिस तरह से सरकारी मान्यता प्राप्त अनाज की दुकानों में दाम तय होते हैं, उसी तरह हर गुनाह की कीमत भी तय कर दूंगा। खून के केस में छूटने पर एक लाख रूपये और लूटपाट के गुनाह में निर्दोष छूटने के लिए लूट की पचास प्रतिशत रिश्वत भी वाजिब होनी चाहिए। यह एक स्वस्थ प्रणाली है और स्वीकार करने योग्य है। इसमें कोई अपवाद नहीं, पुलिस विभाग के कर्मचारियों के लिए भी नहीं। कौआ भले ही दूसरे कौए को खाता हो, लेकिन यदि एक पुलिसवाला दूसरे पुलिसवाले को कोरा निकल जाने दे तो इसकी वर्दी का गौरव कहां रहेगा? हर यूनिफार्म का अपना गौरव हुआ करता है। इसलिए मेरे अधीन कार्य करने वाले को अगर कमाऊ जगह पर बदली चाहिए या प्रमोशन चाहिए तो उसे निर्धारित रकम चुकानी ही पड़ेगी। वह भी नकद। जैसे तमाचा मारने में उधारी नहीं चलती, वैसे ही इसमें शर्म की कोई बात नहीं है। पुलिस एक नजर से देखती है। पहले का एक किस्सामुझे याद है कि एक गरीब पुलिस-कांस्टेबल, एक गांव में एक औरत को धर्म-बहन बनाकर उसके यहां रहता था। बहन अपने इस पुलिस-भाई को मां-जाए की तरह रखती, खिलाती-पिलाती। भाई बाजार में स्कॉलरशिप के रूप में साग-सब्जी वगैरह ले आता था। फिर एक दिन भाई के दिन फिरे। सुखद घटना घटी। उसे राजगद्दी मिल गई। जिस रजवाड़े में वह पुलिस की मामूली नौकरी करता था, इसी रजवाड़े का वह अमीर हो गया। राजा बन गया। धर्म की बहन तो खुशी से पागल हो गई। बहनोई की भी खुशी का पारावार रहा। साले को सम्हाला था, खिलाया था। बहनोई को अच्छे ओहदे की नौकरी मिलनी ही थी। साले से मिलकर बात करने की देर थी इतने में राजा बने साले की तरफ से बुलावा आया। बहनोई घर से दही खाकर, शुभ मुहूर्त में साले से मिलने चल पड़ा। साले ने उसे देखते ही कहा, “तुम तत्काल मेरे राज्य से बाहर निकल जाओ। सूरज ढलने से पहले घर-मकान खाली करके फूट निकलो।” घबरा उठे बहनोई ने पूछा, लेकिन हमारी कोई खता, कोई कुसूर? खता-कुसूर कुछ नहीं। तुम जल्दी से गांव छोड़ जाओ। तुम्हें देखकर मुझे अपनी गरीबी के दिनों की याद आती है। साले ने बताया।  
प्रेम और भावना जैसे  कविता के शब्द पुलिस के शब्दकोश में अच्छे नहीं लगते। किसी के भी प्रति दया-माया नहीं दिखाई जाती। अपराधी के सामने तो बिल्कुल नहीं। मैं पुलिस कमिश्नर बनने की शाम को शहर में दारू के तमाम अड्डेवालों और क्लब के जुआरियों को लॉक-अप में बंद कर दूंगा। फिर सोचता हूं, शराब की नदियां बहा दूं। चार दिन में तो शहर मे दारू की बाढ़ जाए। लोग याद करें कि कोई जबां मर्द पुलिस कमिश्नर बनकर आया था। सिर्फ पुलिस की ही लाइन ऐसी है, जहां शिकायती के साथ आरोपी जैसा व्यावहार किया जा सकता है।। रास्ते जाते किसी भी राजा-रईस को शक के आधार पर पकड़ा जा सकता है। फिर आदमी को अपराधी बनाने में देर कितनी लगती है? पुलिस के लिए हर इंसान गुनाहगार है और हर व्यक्ति में अपराधी छिपा बैठा होता है। यही एक लाइन ऐसी है, जिसमें काम करने और काम करने के पैसे मिलते हैं। वकील को केस जीतने की ही फीस मिलती है। शिक्षक को पढ़ाने पर ही ट्यूशन फीस मिलती है, लेकिन पुलिस-विभाग की एक अलग विशिष्ठता है। अपराधियों को पकड़ने के लिए सरकार पुलिस को वेतन देती है और भगाने के लिए भगाने वाला आदमी बोनस देता है। दारू का केस दर्ज करने के लिए पगार मिलती है और दर्ज करने पर भेंट मिलती है। आरोपी को रिमांड में रखकर पिटाई करने की पगार मिलती है और पिटाई करने पर बख्शीश मिलती है। जिस तरह राजा के लिए कहा जाता है कि ‘किंग कैन डू नो रांग’, उसी तरह पुलिस के लिए भी यही कहा जा सकता है। वह जो कुछ भी करती है, ठीक ही करती है। मैं एक हफ्ते के लिए शहर का पुलिस कमिश्नर बनाने के लिए संपादक जी का आभारी हूं और इच्छा होते हुए भी ऐलान करता हूं कि इस हफ्ते एकाध बार साइकिल  पर वन-वे में जाओ तो हवलदार द्वारा लिखा गया तुम्हारा नाम कटवा दूंगा, बस!
 

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