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बंसोड टायपिंग इन्स्टीट्यूट छिन्दवाड़ा मो.नं.8982805777
created Mar 19th 2020, 08:40 by SARITA WAXER
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निर्भया के दोषियों की फांसी एक बार फिर टल गई है। इसने एक बार फिर चुनौती दी है और कानून के जानकारों को ऐसे हालात से निपटने के तरीके ढूंढ़ने को कहा है। यद्यपि यह सब कुछ देश की न्याय-व्यवस्था के तय नियमों के अनुसार ही हुआ है, फिर भी आम नागरिक इसे कानून के दुरुपयोग के रूप में देख रहा है। इस सोच के पीछे ठोस वजह है। समाज, न्याय के तकनीकी पहलुओं से अनजान होता है। उसे यह नजर आ रहा है कि यह तीसरा मौका है, जब फांसी की पूरी तैयारी होने के बाद उस पर रोक लगाई गई है। चारों दोषियों के लिए पहला डेथ वारंट 7 जनवरी, 2020 को जारी हुआ और 22 जनवरी को सुबह सात बजे फांसी देने का आदेश हुआ, किंतु एक गुनहगार की दया याचिका लंबित रहने के कारण फांसी नहीं हो सकी। दूसरा डेथ वारंट 17 जनवरी को जारी हुआ, जिसमें 1 फरवरी की सुबह छह बजे फांसी दिया जाना था, किंतु 31 जनवरी को अदालत ने अनिश्चित काल के लिए फांसी पर रोक लगा दी। कानूनी धुंध हटने के बाद 17 फरवरी को एक बार फिर डेथ वारंट जारी हुआ और 3 मार्च की सुबह छह बजे फांसी का आदेश हुआ। इसकी पूरी तैयारी भी हो चुकी थी, किंतु अदालत ने एक बार फिर अगले आदेश तक दोषियों की फांसी पर रोक लगा दी।
निर्भया के साथ 16 दिसंबर, 2012 की रात छह लोगों ने दरिंदगी की थी। जानलेवा जख्मों के कारण 29 दिसंबर 2012 को इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई। ट्रायल कोर्ट का फैसला नौ महीने में आ गया था और सितंबर 2013 में पांच दोषियों को फांसी की सजा दी गई। मुजरिमों की ओर से अपील की गई और मुकदमे को उलझाए रखने का अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया। कभी अपील के अधिकार के नाम पर, कभी क्यूरेटिव पिटिशन, तो कभी पुनर्विचार याचिका के माध्यम से उसमें देर करने की पूरी कोशिश की गई। इसके बाद दया याचिका और दूसरे सुरक्षा कवचों का इस्तेमाल करके तकरीबन दो महीने से वे फांसी की सजा को विलंबित करने में सफल रहे हैं। न्यायशास्त्र के मुताबिक, यह सब कुछ सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा है। यह न्याय सुनिश्चित करने की व्यवस्था का हिस्सा है। ऐसा इसलिए करना पड़ता है, ताकि किसी निदोष को सजा न मिले। मृत्युदंड के मामले में तो और भी अधिक सावधानी बरतनी पड़ती है। फांसी के बाद किसी के जीवन को वापस नहीं किया जा सकता। न्याय की मांग यह है कि मौत की सजा के पहले पूरी तरह आश्वस्त होना जरूरी है। एक भी मानवीय भूल न्यायिक व्यवस्था की सदियों की साख नष्ट कर सकती है। सामाजिक साख अदालतों की सबसे बड़ी पूंजी होती है और उसे बचाए रखना उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती। आम नागरिक की तरह न्यायाधीश को इस बात का एहसास रहता है कि कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग हो रहा है। यही कारण रहा होगा कि अपर सत्र न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा को मुजरिमों के वकील ने नया प्रार्थना पत्र देकर फांसी की सजा रोकने का अनुरोध किया, तो न्यायाधीश ने चेतावानी देते हुए कहा कि आप आग से खेल रहे हैं।
निर्भया के साथ 16 दिसंबर, 2012 की रात छह लोगों ने दरिंदगी की थी। जानलेवा जख्मों के कारण 29 दिसंबर 2012 को इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई। ट्रायल कोर्ट का फैसला नौ महीने में आ गया था और सितंबर 2013 में पांच दोषियों को फांसी की सजा दी गई। मुजरिमों की ओर से अपील की गई और मुकदमे को उलझाए रखने का अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया। कभी अपील के अधिकार के नाम पर, कभी क्यूरेटिव पिटिशन, तो कभी पुनर्विचार याचिका के माध्यम से उसमें देर करने की पूरी कोशिश की गई। इसके बाद दया याचिका और दूसरे सुरक्षा कवचों का इस्तेमाल करके तकरीबन दो महीने से वे फांसी की सजा को विलंबित करने में सफल रहे हैं। न्यायशास्त्र के मुताबिक, यह सब कुछ सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा है। यह न्याय सुनिश्चित करने की व्यवस्था का हिस्सा है। ऐसा इसलिए करना पड़ता है, ताकि किसी निदोष को सजा न मिले। मृत्युदंड के मामले में तो और भी अधिक सावधानी बरतनी पड़ती है। फांसी के बाद किसी के जीवन को वापस नहीं किया जा सकता। न्याय की मांग यह है कि मौत की सजा के पहले पूरी तरह आश्वस्त होना जरूरी है। एक भी मानवीय भूल न्यायिक व्यवस्था की सदियों की साख नष्ट कर सकती है। सामाजिक साख अदालतों की सबसे बड़ी पूंजी होती है और उसे बचाए रखना उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती। आम नागरिक की तरह न्यायाधीश को इस बात का एहसास रहता है कि कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग हो रहा है। यही कारण रहा होगा कि अपर सत्र न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा को मुजरिमों के वकील ने नया प्रार्थना पत्र देकर फांसी की सजा रोकने का अनुरोध किया, तो न्यायाधीश ने चेतावानी देते हुए कहा कि आप आग से खेल रहे हैं।
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