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क्या पैडमैन से फर्क समाज पड़ेगा।

created Feb 24th 2018, 12:15 by RahulTiwari1158486


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बहुचर्चित फिल्म पैडमैन ने एक ऐसे मसले को उठाया है जो अभी तक केवल दबा-छिपा था, बल्कि जिसके बारे में खुले तौर पर बात करना भी संभव नहीं था। बहुत दिन नहीं हुए जब हाजी अली दरगाह में औरतों को मुख्य भाग में प्रवेश करने से रोका गया। कारण बताया गया कि उनका माहवारी के दिनों में प्रवेश करना ठीक नहीं। शनि शिगनापुर और शबरीमाला मंदिर में भी महिलाओं को इसीलिए रोका गया कि उन्हें माहवारी आती है। इससे एक बारगी ऐसा लगा जैसे अचानक ही हमारे देश में औरतों को माहवारी आने लगी हो। औरतों ने विरोध जताया तो दूसरी तरफ से भी तलवारें खिंच गईं। एक मौलाना साहब बोले कि औरत नापाक है तो किसी पंडित जी ने कहा कि मंदिर में ऐसी मशीन होनी चाहिए जो माहवारी वाली महिलाओं की पहचान कर सके। ऐसी बातों के पक्ष में धर्मग्रंथों का भी हवाला देने की कोशिश की गई, लेकिन ऐसे लोग दरअसल वे हैैं जिनके अंदर पितृसत्ता की जडें गहरे तक जमी हैैं
धर्म और पितृसत्तात्मक सोच के जाल में औरत को इतना उलझाया गया कि वह माहवारी वाले दिनों में खुद को अपवित्र और कमतर मानने लगी। नतीजा यह हुआ कि वह तकलीफ सहकर भी माहवारी छिपाने लगी। किसी ने नहीं सोचा कि जब यह कायनात ही औरत से जन्मी है तो फिर वह कुछ खास दिनों के लिए अपवित्र या नापाक कैसे हो सकती है? तमाम मुस्लिम घरों में माहवारी में नमाज-रोजा की इजाजत नहीं। कुरान छूने की इजाजत नहीं, केवल दूर से पढ़ सकती है। वह दरगाह नहीं जा सकती, लेकिन हज पर माहवारी से जुड़ा सवाल नहीं पूछा जाता। शायद इसलिए कि हज रेवेन्यू का भी जरिया है। मुस्लिम घरों की तरह तमाम हिंदू घरों में भी माहवारी के दिनों में महिलाएं पूजा-पाठ नहीं कर सकतीं, रसोई में प्रवेश नहीं कर सकतीं, अचार नहीं छू सकतीं। इसी तरह की घोषित-अघोषित पाबंदिया अन्य समाजों में भी हैैं। धरम-करम के जाल में उलझी औरत माहवारी को छिपाते और स्वच्छता को नजरअंदाज करते कब बीमारियों से जकड़ जाती है उसे पता ही नही चलता।

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